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संस्कृत भाषा में टीका साहित्य में आया है तो उसका संकलन हमने नहीं किया है। इसके अतिरिक्त एक ही एकार्थक का प्रयोग अनेक स्थानों पर हुआ है, जैसे-'हेतु निमित्तं कारणमिति पर्यायाः' आदि। उनमें कालक्रम का ध्यान न रखते हुए जहां अधिक स्पष्टता लगी उसी को प्रमुखता दी है ।
प्रस्तुत कोश में एकार्थकों का संचयन बहुत व्यापक संदर्भ में हुआ है। एक ही जाति के द्योतक व्यक्ति या पदार्थ को जातिगत समानता के आधार पर एकार्थक माना है, जैसे-'उप्पल' 'पदुम' के एकार्थक कमल की विभिन्न जातियों के वाचक हैं, पर जातिगत समानता के कारण इनको एकार्थक माना है। इसी प्रकार 'अंताहार', 'सेज्जा' आदि भी द्रष्टव्य हैं।
कुछ शब्दों को उपादान की समानता से एकार्थक माना है । जैसे 'अरंजर' शब्द के पर्याय में सभी शब्द भिन्न-२ आकार के घड़ों के वाचक हैं, लेकिन सभी मिट्टी से निर्मित हैं अत: उपादान की समानता से इनको एकार्थक स्वीकृत किया है । मन में एक प्रश्न था कि इन शब्दों का एकार्थक प्रयोग से उन शब्दों का निश्चित अर्थ निर्धारण नहीं किया जा सकता। परन्तु इस दुविधा का समाधान चूणिकर एवं टीकाकारों ने कर दिया, क्योंकि उन्होंने भी व्यापक अर्थ में एकार्थकों का प्रयोग किया है जैसा कि पहले कहा जा चुका है।
नंदी चूणि में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है कि भिन्न भिन्न अर्थ होने पर भी शब्दों को एकार्थक मानना क्या विरोध नहीं है ? चूर्णिकार ने स्वयं इस प्रश्न को समाहित किया है कि किसी भी वस्तु के स्वरूप को समवेत रूप से देखने पर यह विरोध नहीं है। भिन्न भिन्न दृष्टि से देखने पर विरोध हो सकता है। इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर हमने अनेक ऐसे एकार्थकों का संकलन किया है, जैसे—'तट्टक' 'कुंडल' 'भग्ग', 'ओसारित' आदि ।
एकार्थक कोश के साथ यह समानार्थक भी है। कुछ एकार्थक समवेत रूप से एक ही अर्थ व्यक्त करते हैं, जैसे----'पीणणिज्ज', 'अच्चिय', थेज्ज' इत्यादि। १. नंदीचू पृ ३६ : णणु भिण्णत्थवंसणे एगद्वित ति विरुद्धं ? उच्यते ण
विरुद्धं, जतो सव्वविकप्पेसु ।.....।
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