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दिगम्बर जैन साधु
[ ३७९ अनेक तीर्थों को यात्रा करते हुए आप पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पर पोदनपुर वम्बई माए । शरीर में निर्वलता दिखी तो आपके सल्लेखना धारण करने के भाव हुए । तथा गजपन्था सिद्ध क्षेत्र पर सात माह तक लगातार क्षेत्र की वंदना को, श्रावण शुक्ला १५ दिनांक १३ अगस्त १९७३ को रक्षा बन्धन पर्व के पावन अवसर पर दूध पानी का संकल्प लेकर आपने सल्लेखना व्रत धारण किया। भाद्रप्रद प्रतिपदा को दूध का भी परित्याग कर दिया। दिनांक ६ सितम्बर १९७३ को अन्तिम बार पानी ग्रहण कर आपने यम सल्लेखना धारण कर ली । समाधि अवस्था में शान्तिपूर्वक विमोह वृत्ति से २४ सितम्बर ७३ को आपने इस नश्वर शरीर का त्याग किया ।
निःसन्देह महाराज श्री रत्नत्रय के तेज से सुशोभित एक महान आर्दश सत्परुप, निस्पृह तपस्वी एवं निर्मोही साधु पुरुष थे । ऐसे ही महान पुन्यशाली आदर्श वीतराग साधु पुरुषों से भारत वमुन्धरा की गरिमा बढ़ती है।
मुनिश्री आनन्दसागरजी महाराज आपका जन्म वि० सं० १९६२ पोप वदी तीज को नौगावां जि० वांसवाड़ा राजस्थान में हुवा था। आपके पिता का नाम श्री खेमराजजी हुम्मड़ तथा माता का नाम कस्तूरीवाई था । आपका पूर्व नाम श्री माणिकलालजी जैन था । लौकिक शिक्षा ५ वीं तक ही रही। आपके बचपन के संस्कार उत्तम थे जिससे आप प्रतिदिन देवपूजा आहारदान आदि किया करते थे।
साधुओं के प्रवचनों से प्रभावित होकर आपने वि० सं० २०२८ आषाढ वदी दूज को आचार्य महावीरकीतिजी से क्षुल्लक दीक्षा ली तथा वि० सं० २०२६ में तीर्थराज सम्मेदशिखर मधुवन में प्राचार्य विमलसागरजी से मुनिदीक्षा ली। आपके द्वारा समाज में काफी धर्म प्रभावना होती रही।