Book Title: Digambar Jain Sadhu Parichaya
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Dharmshrut Granthmala

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Page 619
________________ दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री वर्धमानसागरजी महाराज [ ५७१ व० चुन्नीलालजी देशाई ने अंतिम समय में समाधि के समय मुनिपद को धारण करके ईडर में इस नश्वर शरीर का त्याग किया। पिता का नाम कालीदास-माता उगमबाई राजकोट के रहने वाले थे। श्वेताम्बर स्थानकवासी धर्म को छोड़कर दिगम्बर हुये थे । स्वाध्याय प्रेमी होने के कारण आपने अनेकों ग्रन्थों का सम्पादन किया था और स्वतन्त्र ग्रन्थों की भी रचना की है । एक समय आप सोनगढ़ के ट्रस्ट के ट्रस्टी भी थे, परन्तु सैद्धांतिक मतभेद होने के कारण आपने सोनगढ़ के एकांतता का बहुत विरोध किया । आपकी प्रवचन शैली बहुत ही आकर्षक और व्यवस्थित थी। मुनि कुन्थुसागरजी ( गुजरात ) वीर संवत् १९६४ फाल्गुन सुदी १२ के दिन कडियादरा ग्राम में हेमचन्द सेठ की पत्नी दीवालीवाई की कूख से आपका जन्म हुआ, थोड़ी सी अंग्रेजी भी पढ़े, गुजराती ७ वीं कक्षा तक पढ़ी। आपने कडियादरा और विजयनगर में पाठशाला का निर्माण कराया। गांव की हाई स्कूल और अस्पतालों में तन, मन, धन से सेवा की । बहुत से त्यागियों के संम्पर्क में रहे । तीर्थ क्षेत्रों की ६ बार यात्रा की । व्रत-नियमानुसार चलते थे वृद्धावस्था में उद्यापन भी कराये हैं । अपने ग्राम में ही २०३२ को संपत्ति, परिवार को छोड़कर क्षुल्लक दीक्षा ली तथा ऋषभदेवजी में ऐलक दीक्षा ली । तारंगा में कार्तिक सुदी १५ के दिन मुनि दीक्षा ली। मुनि श्री नेमिसागरजी महाराज यह बुन्देल भूमि सदैव से ही वीर प्रसूति होने के कारण वन्दनीय रही है। इसने ऐसे ऐसे महान् योग्य नररत्न उत्पन्न किये हैं जिनसे न केवल बुन्देलभूमि अपितु पूरा देश अपने आपको गौरवान्वित समझने लगता है । इसी बुन्देल भूमि के मध्यप्रदेशान्तर्गत जिला टीकमगढ़ से पूर्व दिशा में ६ मील की दूरी पर स्थित एक छोटे से ग्राम पठा में स्थित श्री सिं० रामचन्द्रात्मज मुन्नालाल जैन वैद्य के घर यशोदादेवी की कुख से विक्रम संवत् १९६० फाल्गुन शुक्ला १२ रविवार पुष्य नक्षत्र शुभ तिथि में आपका जन्म हुआ । जो आगे चलकर दिगम्बर मुनि के रूप में प्रगट हुये ।

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