Book Title: Digambar Jain Sadhu Parichaya
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Dharmshrut Granthmala

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Page 656
________________ ६०८ ] दिगम्बर जैन साधु आपने आग्रह करने पर भी विवाह नहीं किया और बाल ब्रह्मचारी रहे और वि० सं० १९८० में चौरू से जयपुर आ गये तबसे जयपुर में ही रहते हैं । चौरू और जयपुर दोनों ही जगह आपके . मकानात हैं। चौरू में आपके बड़े भाई रहते हैं । जमीन जायदाद के मालिक हैं। . ...... . आपने जयपुर में कपड़े का व्यापार किया जिसमें ३० हजार रुपये का आपको थोड़े ही दिनों में लाभ हो गया । उस समय आपने इतना ही परिग्रह प्रमाण रख छोड़ा था। अतः आगे . व्यापार करना बन्द कर दिया और उस पूजी में से पांच हजार रुपया आपने मूल निवास स्थान चौरू औषधालय खोलने को दे दिया और श्री चन्द्रसागर दिगम्बर जैन औषधालय की स्थापना कर दी जो अब तक चल रहा है और अच्छी स्थिति में है । पाँच हजार रुपयों से भी अधिक आपने चौरू में श्री जिन मन्दिरों के जीर्णोद्धार उत्सवादि में लगा दिये तथा ५०००/- अन्य धर्मकार्यों में लगा दिये। वि० सं० १९६४ में आपने प्रातः स्मरणीय स्व० चन्द्रसागरजी महाराज से दूसरी प्रतिमा के व्रत ले लिये और मुनि संघ की सेवा में लीन हो गये । ७ वर्ष तक मुनिराज चन्द्रसागरजी महाराज की सेवा में ही बिताकर धर्माराधन और ज्ञानार्जन किया। संवत् २००१ में जब १०८ श्री चन्द्रसागरजी महाराज का समाधिमरण बड़वानी में हुआ तब तक आप बराबर साथ रहे और खूब वैयावृत्ति की। आपने संवत् २००० में ही श्री चन्द्रसागरजी महाराज से सातवी प्रतिमा के व्रत ले लिये थे। आपका प्रत्येक धर्म कार्य में सहयोग रहता है । फुलेरा में जब पंचकल्याणक महोत्सव हुआ तब आपने उसमें बड़ा भारी सहयोग देने के साथ श्री १०८ श्री मुनिराज वीरसागरजी महाराज ( ससंघ ) की सेवा-वैयावृत्य में बड़ा भारी योग दिया और संघ की सम्मेदशिखरजी तीर्थराज की वंदना कराने में पर्याप्त प्रयत्न किया और परिश्रम उठाया। १० वी प्रतिमा आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से ली। वर्तमान में आचार्य धर्मसागरजी महाराज के संघ में धर्म साधन में रत रहते हुए . जिनवाणी को सेवामें संलग्न हैं।

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