Book Title: Digambar Jain Sadhu Parichaya
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Dharmshrut Granthmala

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Page 597
________________ दिगम्बर जैन साधु [ ५४६ विभूति है ।" आत्मा के कल्याण के लिए मुनिश्री पदार्थों से मोह के त्याग पर बल देते थे । आवश्यकता से अधिक संचय के कट्टर विरोधी थे और स्वयं तो इतने निष्परिग्रही थे कि संघ के व्यामोह से ही अलग थे । जिनका जीवन जैनधर्म को अर्पित हो गया श्राज जिनका जीवन लाखों भारतीयों के लिए श्रद्धास्पद बन गया । क्या जैन, क्या हिन्दू, क्या मुसलमान सभी के पूज्य सन्त बन गये । मानव की पीड़ा से जिनका हृदय करुणा जल • भर गया और संतप्त प्राणियों के लिए सुख और शान्ति का सिंहनाद करते जो बड़े से बड़े नगर और छोटे से छोटे गांवों में विहार कर रहे हैं । "श्रीनगर" की पर्वतीय यात्रा कर आपने " मुनि इतिहास" में एक नवीन अध्याय जोड़ दिया । आपमें धर्म सहिष्णुता जो सम्यक्दर्शन का एक अंग है, इतनी उत्कट रूप से समाहित है कि "कल्याण" मासिक के विद्वान धार्मिक नेता श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार ने आपका सम्मान कर अपने निवास स्थान पर मुनि श्री के प्रवचन करवाये थे । भारत के उच्चकोटि के राजनैतिक, साहित्यकार और दार्शनिक लोग तथा विदेशी विद्वान आपके व्यक्तित्व और विलक्षण प्रतिभा से प्रत्यन्त प्रभावित हुए हैं । डा० मंगलदेव शास्त्री, रूसी विद्वान चेपिशेव, बौद्ध भिक्षु सोमगिरी, बालयोग प्रेम वर्णी, निरजन नाथ आचार्य, पीठाधीश्वर स्वामी नारदानन्द, श्रीमती डा० वागल, डा० कृष्णदत्त वाजपेयी आदि सैंकड़ों लोग आपके प्रभाव में आये और अत्यन्त श्रद्धा देते थे । श्रीनगर की पर्वतीय यात्रा के दौरान आप हिमालय की कन्दराओं में रहने वाले साधुओं के सम्पर्क में प्राये जो आपके त्यागमय जीवन से अत्यन्त प्रभावित हुए। आपके तपःपूत जीवन से धर्म और ज्ञान की लक्षलक्ष किरणें प्रस्फुटित होकर इस विषम परिस्थिति और युग के संक्रमण काल में धर्मं जय का नारा उद्घोष कर रही हैं । #

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