Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 13
________________ है, देह जवां मर्द होती है, देह में झुर्रिया पड़ती हैं। हम जो मूल हैं, वह तो फिर भी अजन्मा ही रह जाता है, वह बूढ़ा कहाँ होता है? वह स्त्री और पुरुष नहीं होता है। वह तो बस एक ऐसा 'है' जो हम मूल में हैं, जो हमारा मूल अस्तित्व है। हम कौन हैं, हमारा मूल स्रोत क्या है, हमारा स्वाद और सुवास क्या है, हमारा प्रकाश और विकास क्या है, हमें इसकी तह तक पहुँचना है। उस मृत निर्झर तक पहुँचने के लिए, कचरे-कबाड़े को, पत्थर की चट्टानों को हटाना है। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, मृत/अमृत, चंचल/ स्थितप्रज्ञ, हमें उसका आविष्कार करना है, जीवन के सनातन विज्ञान की हमें यही प्रेरणा है। ___ जो हम हैं, जो हमारा प्राण और महाप्राण है, जो हमारा मौलिक जीवन-तत्त्व है, उसके प्रति हमारी अपनी उत्सुकता, हमारी अपनी लगन ही काम आएगी। बीवी, बच्चे, धणी-धोरी ये सब तो अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिए ही रोते और प्रेरित करते रहेंगे। हमारे निजत्व तक तो हमें ही पहुँचना होगा। अपने सच्चे स्वरूप के प्रति हमें ही उत्कंठित होना होगा। अपने प्रति होने वाली सजगता जीवन में संबोधि के मंगल कलश की स्थापना है। आखिर हम तक हम ही पहुँच सकते हैं। अंतर्जगत का पथिक व्यक्ति स्वयं ही हो सकता है। स्वयं के अतिरिक्त वहाँ और किसी की पहुँच होती भी नहीं है। ___गुरुजनों और ज्ञानीजनों से रास्तों को जान लेना एक अलग बात है, किन्तु जहाँ चलने की बात आती है वहाँ सहायक की सहायता जरूर मिल सकती है लेकिन एक बात याद रखें कि अंतत: तो खुद के पाँव से ही चलना पड़ता है। आगे रास्ता इतना संकड़ा है कि 'अप्प दीवो भव', 'एकला चलो रे' सूत्र ही वहाँ सार्थक हो पाता है। रास्ता पार हो गये, शिखर तक पहुँच गये, फिर तुम सारे संसार के हो गए, सारा संसार तुम्हारा आराधक हो गया। चेतना ने चेतना का रूप ले लिया, तो सकल ब्रह्माण्ड की चेतना के साथ तुम एकाकार हो गये दीपक की ज्योति सूरज में जाकर समा गई। हम में हम ही प्रवेश कर सकते हैं। शब्द और तर्क वहाँ से पलटी Jain ४ ध्यान का विज्ञान For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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