Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 50
________________ उसके लिए माह में एक बार की अनुमति है । जिसका इस पर भी नियंत्रण नहीं है, उसके लिए कोई सन्देश या सिद्धान्त नहीं है । सत्य के सन्देश आखिर मनुष्य के लिए होते हैं, जानवरों के लिए नहीं । 1 मन पूरी तरह निर्विकल्प रहे, यह सच में कठिन लगता है। मन संकल्पविकल्पों से घिर ही जाता है। कितनी भी सजगता क्यों न रखें, विकल्प की कभी-न-कभी, कोई-न-कोई तो बयार चल ही पड़ती है । मन का धर्म सोचना है। मैंने पाया है कि जब हम ध्यान में होते हैं, ध्यान की गहराई में होते हैं, तो पूर्ण निर्विकल्प अवस्था रहती है, किन्तु शेष जीवन में हमारी समाधि सविकल्प ही हो सकती है । चित्त की पूर्ण निर्विकल्पता के लिए सतत एकत्व का बोध चाहिये । अन्यत्व के प्रति किंचित् भी हिलोर न उठे। देह और मन की पर्यायों को अनित्य देखा जाये, संसार को अशरण रूप माना जाये। हम जिस वातावरण में, जिस युग में जी रहे हैं, जैसा अन्नपानी हमें खाने-पाने को मिल रहा है वह कितना प्रदूषित है ! तुम कितना भी अपने को बचाओ, लेकिन पानी के साथ शरीर में उतर रहे प्रदूषण को कैसे रोकोगे ? हवा में फैले प्रदूषण का निरोध करना आखिर सम्भव नहीं है । हम शान्त मन के स्वामी बनें। हमारे अधर मधुर हों, हमारा तन साफ- स्वस्थ हो, यह अपेक्षित है और सम्भव भी। हम शान्त मन के स्वामी हो सकते हैं । पूर्ण निर्विकल्प होना आम आदमी के लिए मुमकिन नहीं है। हम ध्यान में बैठें, ध्यान में गहरे उतरें और एक घंटा भी स्वयं की संकल्प-विकल्प रहित स्थिति रही तो समझ लें जीवन को शान्त - सौम्य बनाने का गुर हमारे हाथ लग गया। स्वयं की संकल्पविकल्प रहित स्थिति का नाम ही ध्यान है और उस स्थिति की अनुभूति तथा परिणाम का नाम ही सम्बोधि है । इस स्थिति तक पहुँचाने का जो उपक्रम है, मैं उसी को सम्बोधि- ध्यान कहता हूँ । विधि चाहे जो हो, चाहे जिसकी हो, थोड़े-बहुत परिवर्तन को लिए सभी समतुल्य होती हैं, लेकिन हर ध्यानविधि की जहाँ जाकर परिणति होती है वह हर परिणति सम्बोधि- ध्यान के नाम से पुकारी जा सकती है । संबाधि-ध्यान किसी विधि का नाम नहीं, वरन् चेतना की संबुद्ध, जागृत, उपलब्ध अवस्था का नाम है । जीवन में ध्यान हो, यह हर किसी के लिए ज़रूरी है। ध्यान के साथ Jain Education International ध्यान के जीवंत चरण / ४१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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