Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 52
________________ से हम बाहर आयें और हर परिवार हमारा परिवार हो जाये, विश्व-मैत्री के चिंतन के पीछे यही पृष्ठभूमि है। यह मित्रता एक ऐसी मैत्री है, जिसमें प्रेम भी है और करुणा भी; क्षमा भी है और सहिष्णुता भी। तुम ध्यान धरने से पहले अगर विश्व-मित्रता का चिन्तन करते हो, तो तुम मैत्री के माधुर्य से आह्लादित हो उठोगे, प्रेम के परिपाक से पूर्णता' का साक्षात् अनुभव करोगे। हमारा यह भावपूर्ण चिंतन हो – 'मैं सबको क्षमा करता हूँ और सब मुझे क्षमा करें। प्राणिमात्र के प्रति मेरा प्रेम है। मेरा किसी से किंचित भी वैर नहीं।' तुम सम्पूर्ण विश्व को अपने हृदय में आमंत्रित करो। सम्पूर्ण अस्तित्व स्वतः तुममें साकार होता दिखेगा। तुम भी सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ एकरूप हो जाओगे। हृदय में विश्व को न्यौता दो और फिर सम्पूर्ण विश्व पर अपना प्यार और माधुर्य उड़ेलो। दूसरा है : प्रसन्नता। जिसके हृदय में सदा प्रेम, माधुर्य और पवित्रता की सुवास रहेगी, स्वाभाविक है वह प्रसन्न-हृदय, प्रसन्न-चित्त रहेगा। प्रसन्नता का अर्थ हम हँसना-हँसाना न समझें। हँसी-ठठा करना तो एक प्रकार की फूहड़ता है। हँसने और मुस्कुराने में फ़र्क है। हँसना फूहड़ता है, मुस्कुराना शालीनता। यहाँ प्रसन्नता का अर्थ हँसने-हँसाने से नहीं है, वरन् एक ऐसी मुस्कान से है जो किसी के द्वारा लाख उपेक्षित होने के बावजूद बरकरार रहे। स्वाभाविक है कि कोई तुम्हें अपमानित करे, कटु शब्द कहे, लेकिन हमारी ओर से इसके बावजूद उसके प्रति होने वाला सद्व्यवहार ही वास्तव में चित्त की शान्ति और प्रसन्नता है। जिस मुस्कान में शान्ति, समता और सहिष्णुता का पुट हो उसी का नाम प्रसन्नता है, प्रमोद-भाव है। जैसे काँटों के बीच गुलाब खिला हुआ रहता है, जैसे गढ्ढे में जल की तरंग लहराती है, जैसे पत्तों पर ओस के कण झिलमिलाते हैं, जैसे रात के अंधियारे में चाँद दमकता है, ऐसे ही हमारी चिर-प्रसन्नता रहे। आपमें से हर कोई किसी-न-किसी महापुरुष को अपना आदर्श मानता होगा। कहा जाता है कि महावीर के कान में कीलें तक ठोक दी गईं, मगर फिर भी उन्होंने कोई प्रतिकार नहीं किया। उनकी अंतरात्मा का माधुर्य खंडित नहीं हुआ। जीसस को सलीब पर चढ़ा दिया, मगर उस महान आदमी ध्यान के जीवंत चरण / ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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