Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 103
________________ हमें अपने जीवन की समस्त सुविधाओं और व्यवस्थाओं के लिए आत्माश्रित रहना चाहिए, न कि पराश्रित। मेहनत की रूखी रोटी भी अच्छी होती है बनिस्पत दान की चिकनी रोटी के। औरों के द्वारा प्रदत्त रोटी हमें अहसान के बोझ से दबा देती है। अपनी कमाई से ही अपने स्वाभिमान और गौरव की रक्षा हो सकती है। किसी के संत होने का यह अर्थ तो नहीं हुआ कि वह समाज के आश्रित जीवन जीये। संत होने का अर्थ यह थोड़े ही होता है कि हम दान की रोटी खाएँ। व्यक्ति संन्यास लेता है साधना के लिए। साधना का अर्थ यह नहीं है कि तुम कार्य न करो। साधना का संबन्ध हमारी आत्मा से है। उसमें जीवन की व्यवस्थाएँ बाधक कहाँ बनती हैं । साधना कर्म-विमुख कदापि नहीं होनी चाहिएँ । हम अब तक आध्यात्मिक साधना के लिए ही 'ध्यान' का उपयोग करते रहे हैं। मैं ध्यान को जीवनसापेक्ष रूप देना चाहता हूँ। मैं अपने हर कार्य को, हर गतिविधि को ध्यानपूर्वक करता हूँ। मेरा यह ‘करना' कर्म-योग है और ध्यानपूर्वक करना साधना ध्यान को जीने का अर्थ यह थोड़े ही है कि आप समाज में नहीं जाएँगे, समाज की गतिविधियों में शरीक नहीं होंगे, कि व्यवसाय या उत्पादन नहीं करेंगे। ध्यान तो हम इसलिये करते हैं ताकि हम उत्पादन भी ध्यानपूर्वक कर सकें। एक आम आदमी कोई तरह का उत्पादन करे तो दोनों की शैली और परिणाम में फ़र्क होगा। ध्यानी व्यक्ति उन लोगों के जीवन-मूल्यों का ध्यान रखेगा जो उसकी उत्पादकता का उपयोग करेंगे। लोग कहेंगे किसी तरह का उत्पादन करो तो आरंभ-सभारंभ(हिंसा) होता है, स्थूल और सूक्ष्म की हिंसा होती है। उनकी बात में दम तो है मगर इससे बडे दम की बात यह है कि तुम अगर ध्यान करते हो और यदि ध्यानपूर्वक किसी तरह का उत्पादन करो तो उल्टे हिंसा कम होगी। उत्पादन तुम करो या न करो; तुम न करोगे तो कोई और करेगा। उत्पादन में जो हिंसा होती है वह तो होगी। तुम करोगे तो कम होगी। इसे यूँ समझें। आपके घर में आपकी नौकरानी झाड़ लगाती है वहीं अगर घर की मालकिन झाड़ लगाती है तो झाड़ निकालने के प्रति दोनों के विवेक में तुम फ़र्क पाओगे। आप अगर ध्यान करते हैं और झाड़ निकालते ९४ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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