Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 117
________________ ध्यान मनुष्य का संबल है, जीवन का अमृत है, अन्तरमन की आत्यंतिक गहराई को उघाड़ने का मार्ग है। ध्यान तो मनुष्य के साथ रहता ही है। एकाग्रता भी रहती है, मगर यह एकाग्रता चिन्तन की बजाय चिन्ता में. विधेय की बजाय हीनता में और स्वीकार की बजाय विकार में रहती है। ___महावीर ने ध्यान को अशुभ भी कहा है। यह एक बड़ी क्रान्ति की बात है। उन्होंने शुभ ध्यान पर बल दिया है और अशुभ, अशुचिपूर्ण ध्यान से परहेज रखने के प्रति सतर्क किया है। आर्त और रौद्र, ध्यान के तमस् रूप हैं। धर्म और शक्ल, ध्यान के सात्विक रूप हैं। तन-मन की, जीवनजगत् की अधोगामी प्रवृत्तियों में तन्मय और चिन्तनशील रहना ध्यान का अशुभ रूप है। ऊर्ध्वमुखी और सकारात्मक प्रवृत्तियों में एकनिष्ठ होना शुभ रूप है। मानसिक हिंसा, तनाव, चिंता और घुटन से घिरे रहना आर्त और रौद्र ध्यान हैं वहीं सर्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत रहना, सृजनात्मक कार्य में विश्वास रखना धर्म-ध्यान है। प्रिय-अप्रिय, हित-अहित, सुखदुख, हर तरह की संवेदनाओं एवं परिस्थितियों में सम रहकर वीतरागता एवं वीतद्वेषता के अतिशय रस में निमग्न रहना शुक्ल ध्यान है। यह ध्यान ज्योतिर्मय है, आनन्द रूप है, चैतन्य स्वरूप है। यही संबोधि, कैवल्य और निर्वाण का आधार है। हम अपने मन की, तन की, अनर्गलताओं को काटें, उनसे बचें, जीवन को प्रकाश की परिभाषा दें, प्रकाश का पथ दें, प्रकाशमय बनें। हम अपने जीवन में ध्यान को जिएँ, ज्ञान की समझ की रोशनी प्रदीप्त करें। ध्यान के प्रति हम सजग और सहज हों। तमस् का कोहरा चाहे जितना सघन हो, आखिर एक-न-एक दिन तो वह छंटेगा ही, शिथिल होगा ही। नियति को अन्ततः आत्मा का साथ निभाना होगा। हम कर्मयोग से न कतराएँ। जीवन की आवश्यक व्यवस्थाओं एवं सामाजिक वात्सल्य के लिए अन्तरगुहा से बाहर आएँ और काम समाप्त होते ही अन्तर की गहराई में डूब जाएँ, मूल स्रोत के साथ सम्बद्ध हो जाएँ। हम ध्यानपूर्वक जिएं। अपनी अन्तरात्मा में आत्मविश्वास की प्रतिमा विराजमान करें और स्वयं के जीवन-मन्दिर के निर्माण के लिए त्याग और पुरुषार्थ करें। परिणाम कैसे आत्मसात् होगा, ध्यान कैसे गहरायेगा इस पर १०८ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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