Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 116
________________ के लिए सेवा को सम्बल बनाया जाए। विकास के ये तीन चरण सारे संसार में प्रतिष्ठित होने चाहिये। युग को ध्यानयोग की आवश्यकता है। संसार में संत्रास और अपराध बढ़ रहे हैं। तनाव और टकराव में बेहिसाब बढ़ोतरी हुई है। हिंसा और आपाधापी जीवन और समाज के रथ को आगे बढ़ने से निरन्तर रोक रहे हैं। रिश्वत और अपराध जैसी बेईमानियाँ बेहद बढ़ी हैं। ऐसी स्थिति में यह जरूरी है कि मानव-समाज के चित्त को शुद्ध करने के लिए, मन-मानस को निर्मल-निष्कलुष करने के लिए ध्यानयोग की जो भूमिका हो सकती है, वह तमस् घिरे युग में प्रकाश की सुबह साबित होगी। ___ ध्यान सबके लिए है। सूरज और बादल की तरह यह सबको लाभान्वित करता है। ध्यान को जीने के लिए चाहिये एकाग्रता/तन्मयता। एकाग्रता स्वयं ही लक्ष्य-सूचक है। एक आगे हो, बाकी सब पीछे, यही एकाग्रता है। तुम्हारे हाथ में तुम रहो, फिर कोई चिंता नहीं। 'एकला चलो रे' सूत्र एकाग्रता से ही निष्पन्न हुआ है। 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणइ' की बात इसी एकाग्रता का विस्तार और परिणाम है। एकहि साधै सब सधे' की साधुक्कड़ी भाषा भी इसी एकाग्रता और तन्मयता से ईजाद हुई है। एकाग्र बनो यानी लक्ष्य और ध्येय के प्रति सजग रहो। लक्ष्य ध्यान में है तो ध्यान हमारे हाथ से छूट नहीं सकता। हमारी यह मुश्किल है कि हम ध्यान को तो महत्त्व देना चाहते हैं, किन्तु ध्येय को गौण कर बैठते हैं । हम चित्त-मन से ऊपर नहीं उठ पाते, उसकी उलटबाँसियों में ही उलझ जाते हैं। नतीज़ा यह निकलता है कि ध्यान कुछ दिन तो चलता है, फिर मन ऊब जाता है, तो ध्यान छूट जाता है। ध्यान करने वाला व्यक्ति अपनी पात्रता का निर्माण नहीं कर पाता, ध्येय के प्रति आत्मनिष्ठ नहीं रह पाता उससे पहले ही गुचलकी खा जाता है, फिसल जाता है। हमारे सामने हमारा लक्ष्य और गंतव्य स्पष्ट होना चाहिए। हम तब तक मार्ग पर चलते रहें, जब तक हमारा लक्ष्य हमारे हाथ न लग जाए। यदि लक्ष्य के प्रति हम समर्पित और अभीप्सु नहीं होंगे तो ज्ञान-ध्यान का कोई मतलब ही नहीं है। बगैर मंजिल का मार्ग कैसा और बगैर ध्येय के ध्यान कैसा! Jain Education International For Personal & Private ध्यान : विधि और विज्ञान / १०७... For Personal & Private Use w.jainelibrary.org

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