Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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है तो आपके विवेक में और उनके विवेक में भी बड़ा फर्क होगा। एक आदमी झाड़ निकालते समय खिड़की और आँगन में चलती चींटियों पर ध्यान नहीं देता और फटकारे मारते हुये झाड़ निकाल लेता है। स्वाभाविक है कि चींटियों की हिंसा का दोष तो लगेगा ही। दूसरा आदमी ध्यानपूर्वक झाड़ लगा रहा है, तो वह चींटियों को बचाते हुए झाड़ लगाएगा। उसे चींटी में भी आत्मवत् स्वरूप दिखाई देगा। झाड़ तो लगेगा ही किन्तु ध्यानपूर्वक झाड़ लगाना अहिंसा को चरितार्थ करना है। उत्पादन ऐसा होना चाहिए जिसमें जीवदया का निर्वाह हुआ हो और उत्पादन करने वालों का शोषण भी न हुआ हो। कितना अच्छा हो यदि हम कर्मयोग को भी ध्यान-योग बना लें। हमारा कर्म भी हमारी उपासना का अंग हो जाये। हमारा काम भगवान को निवेदित की जाने वाली प्रार्थना बन जाये।
संत कबीर जन्म से जुलाहा थे, कपड़े बुनने का काम करते थे। कपड़ा बुनते वक्त हर धागे में उनकी ओर से राम-राम का स्मरण होता। ज़रा कल्पना करो कि जिस चादर के हर ताने-बाने में राम-नाम समाया हो उस चादर का रंग कितना अनेरा होगा। उस चादर में कितना निरालापन होगा, कितनी उजास होगी। कबीर कहते हैं :
चदरिया झीनी रे झीनी राम नाम रस भीनी
चदरिया झीनी रे झीनी। चादर बुनने में भी राम का रस! इसे कहते हैं सम्यक् उत्पादन-प्रवृत्ति फिर भी अनासक्ति। कबीर के लिए चादर बुनना ही नहीं, वरन् खानापीना भी भगवान को भोग चढ़ाने के समान रहा। उठना, बैठना, चलनाफिरना परमात्मा के मन्दिर की परिक्रमा लगाना रहा। कितने रस भरे शब्दों में कबीर ने गाया है :
खाऊ-पिऊ सो सेवा
उठू बैलूं सो परिक्रमा। कबीर ने तो ग्राहक में भी राम को निहारा है। जरा कल्पना करें कि उस व्यक्ति का व्यवसाय, जीविकोपार्जन कितना श्रेष्ठ होगा जो ग्राहक में
ध्यान और कर्म का समन्वय / ९५
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