Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 106
________________ दिन भर श्रम करें, जीवन-व्यवस्था के साधन संपादित करें और साँझ पड़ने पर ध्यान में हो लें, अंतर्मन की गहराई में डूब जायें। जीवन और समाज के लिए बाहर प्रवृत्ति हो और कर्म पूरा होने पर पुनः अन्तःकरण में चले जायें और अंतर्मन की गहराई में डूब जायें । वास्तव में समाज को हमें इस तरह जीना चाहिये कि स्व-सत्ता के साथ संबंध बना रहे । हम अपनी अंतर-आत्मा को भूल न जायें । एक ओर से प्रवृत्ति हो रही है और दूसरी और से निवृत्ति | प्रवृत्ति का संतुलन बिठाना ही जीवन की साधना है, तपस्या है। बेहतर होगा कि हम अपने कार्य को भी अपनी ओर से हो रही सेवा समझें। अगर हमने किसी प्राणी की सेवा की, किसी मनुष्य के काम आये तो यह ही मानें कि हम से परमेश्वर की सेवा हुई । प्राणी मात्र की सेवा को परमेश्वर की सेवा मानने वालों में से ही मदर टेरेसा और क्रिस्टल रोजर्स जैसे लोगों का जन्म होता है । मानवता ऐसे लोगों से ऋणी रहती है, गौरवान्वित होती है। सार बात इतनी-सी है कि हम हर कार्य को तन्मयता से पूरा करें । ध्यानपूर्वक पूरा करें। जितनी आवश्यकता चेतना के ध्यान की है, उतनी ही इस बात की है कि हमारे सभी कार्य ध्यान - रूप होने चाहिए । Jain Education International ध्यान और कर्म का समन्वय / ९७ www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only

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