Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 67
________________ ऐसा है जैसे ख़ज़ाने के बीच बैठा जहरीला जन्तु। कर्म का सही और गलत होना मन पर निर्भर करता है। हमारे क़दम अगर मंदिर की ओर बढ़ रहे हैं, तो उसका कारण भी मन है और हम मधुशाला के द्वार पर दस्तक देते हैं, तो उसका भी मन को ही आधार मानेंगे। संसार के प्रति आकर्षित मन ने भौतिकता को जन्म दिया है, वहीं अन्तर्मुखी मन ने अध्यात्म को। विज्ञान और शृंगार दोनों ही मन की ही देन हैं। एक विकसित मन की और दूसरे रसीले मन की। मन का परीक्षण ज़रूरी है। मन से पलायन करने से कुछ नहीं होगा। मन का शांत-सौम्य होना ज़रूरी है। मन दुनिया का सबसे तेज धावक है। छिन में यहाँ, छिन में कहीं का कहीं। जिस मन की गति इतनी तेज है उसे शून्य पर लाना बड़ा कठिन काम है। वह फिर-फिर भटक ही जाता है, बिखर ही जाता है, बिफर ही जाता है जब संत विनोबा से पूछा गया कि आप दिन भर क्या करते हैं तो संत ने कहा जब मैं अपना परीक्षण करता हूँ, कि दिन भर में मैं क्या करता हूँ, तो ध्यान करता हूँ, ऐसा ही उत्तर अंदर से मिलता है। यह बात एकाग्रता की सूचक है, तन्मयता और अन्तर्लीनता की द्योतक है। ___बिगड़े हुए मन से सुधरा हुआ जीवन नहीं जीया जा सकता। मन तो मानो एक शक्तिशाली जानवर की तरह है। हमें उसे पालतू बनाना पड़ता है, शांत-सौम्य बनाना पड़ता है। हमें अपने मन को पहचानना होगा, स्वयं की जैसी भी स्थिति है, उसे पढ़ना होगा। अपने आपको पढ़ना जीवन का एक सुकृत पुण्य कार्य है। स्वयं में उतरकर स्वयं को पहचानना मानो किसी परमात्मा के मन्दिर की परिक्रमा लगाना है। अन्तरतम की गहराई में उतरना काशी-कर्बला की तीर्थ-यात्रा के समान है। हम अपने मन से भागे नहीं। उसमें उठने वाले भँवर और तूफान से डगमगाएँ नहीं। भीतर से भय नहीं खाना है, वरन भीतर के भँवर को शांत करना है। क्यों न हम इक डायरी लिखें - मन की डायरी। मन को हम खुला हो जाने दें। उसे देखें, सजगता से पढ़ें और उसे डायरी में बिना किसी मन-इच्छा के लिख डालें। यह हमारी आत्मकथा होगी, मन की 'प्राइवेट डायरी' होगी। कहते हैं मन में अगर किसी तरह का गुब्बार भरा हो और उसे प्रकट कर दिया जाये, तो मन हल्का हो जाता है। भीतर बैठे मन को ५८ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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