Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 87
________________ कि हमारी पलकें स्वतः झुक गई हैं। तुम्हें जैसे ही अपना अहसास होगा तुम स्वयं में आकाश को प्रगट हुआ पाओगे। भीतर और बाहर का आकाश एकाकार हो जाएगा। वह क्षण जीवन-मुक्ति को जीने का क्षण होगा। यह अभिनव क्षण है, अमृत क्षण है। ऐसे क्षणों में जितना विस्तार हो, हमारी स्व-सत्ता के लिए उतना ही मंगलदायी है। ___ध्यान रहे, जब हम आकाश को देखें तो केवल आकाश को देखें, आकाश के बारे में सोचें नहीं। आकाश को देखें और आकाश में खो जायें। देखना तो केवल देखना भर ही होगा। सोच अगर उसमें बाधक न बना तो यह देखना निश्चित तौर पर हमारे भीतर-बाहर के आकाश को एकाकार कर देगा। आकाश को देखते-देखते आदमी आकाश होता है। फलों को एकटक निहारो तो तुम्हारा अंतरमन फूल ही हो जाता है। परमात्मा की निरंतर लयलीनता रहे तो परमात्मा हममें प्रगट हो ही जाते हैं। जिसे आकाश दिखा है, अपने अंतस् का आकाश दिखा है, अपने अंतस् का आकाश अनुभव में आया है वह प्राणी मात्र में निहित आत्मा को, आकाश को सहजतया निहार लेगा। ऐसा होने पर वह स्वयं तो सतत आनंदित रहेगा ही, उसका औरों के साथ व्यवहार भी अत्यंत सहज सौम्य और सौहार्दपूर्ण होगा। अन्तरमौन तो स्वतः घटित होगा; चेतना की मुस्कान तो स्वतः स्फुरित होगी। लाली मेरे लाल की, जित देखू तित लाल। लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥ लाली को तो देखते-देखते हमें भी ललाई आ गई। लाली में प्रवेश किया तो हम भी लाल हो गये। सीधी-सी बात है कि काजल की कोठरी में जाओगे तो कालिमा चढ़ेगी और लाली में डूबोगे तो चितवन में ललाई फूटेगी। प्रेमिका को याद करोगे तो वह ही हो जाओगे। स्वयं को जिस तरह का धरातल देना चाहोगे, तुम्हें वैसे ही धरातल की सुविधा मिलेगी। साधना का मूल बीज है अंतर-मौन और इसे पाने के लिए हम एक ऐसे विराट तत्त्व का आलंबन ले रहे हैं, उस आकाश का जो अपने आप में परम मौन, परम शून्य, परम अस्तित्ववान है। आप ध्यान धरें, पलकें मूंद लें और आँखों को देह के भीतर की ओर ___७८ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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