Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ के कमल खिलते हैं। एक ऐसी झील है, जिसमें प्रेम के हंस विहार करते हैं। ऊँचा उठता हआ प्रेम हृदय की श्रद्धा है, भक्ति है, पूजा है, अर्घ्य है और लौटता हुआ प्रेम आनंद का उत्सव और अस्तित्व का आशीष है। प्रेम का यह स्वभाव है कि वह किसी औढ़र दानी की तरह देकर ही सुख मानता है। किसी का करुणाशील होने के लिए प्रेमपूर्ण होना अनिवार्य है। प्रेम से ही करुणा का स्राव होता है। प्रेम और करुणा दोनों का संबंध हृदय से है। हार्दिक प्रेम और करुणा ही मनुष्य को जीवन का सम्राट बनाती है। करुणा में ही प्रेम फलित होता है। करुणा प्रेम का आध्यात्मिक रूप है, प्रेम का दिव्य रूप है। प्रेम मानवता का लक्षण है, करुणा आध्यात्मिकता का। प्रेम का जो पवित्र रूप है, प्रेम का जो दैवीय रूप है, प्रेम का जो आनंद-स्वरूप है, बुद्ध उसी को करुणा कहते हैं। बुद्ध करुणा के अवतार रहे हैं और महावीर अहिंसा के। अहिंसा का सकारात्मक रूप ही प्रेम और करुणा है। ध्यान की निष्पत्ति, ध्यान की कसौटी, ध्यान की सिद्धि करुणा की राहों से होकर गुजरती है। कहते हैं: भगवान का एक शिष्य गुफा में नौ वर्षों से साधना में लीन था। वह अपनी साधना से संतुष्ट न हो पाया। जैसे परिणाम मिलने चाहिये, वापस घर लौट जाने की सोची। उसे लगा वह साधना करते थक चुका है। उसने वापस घर लौट जाने की सोची। पौ फटते ही वह गुफा से बाहर निकल आया। तभी उसकी नज़र गुफ़ा के बाहर कोढ़ से घिरे किसी कुत्ते पर पड़ी। उसने सोचा, घर जाने से पहले कम-से-कम इस कुत्ते के तो घाव धो-पोंछ लिए जाएँ। यह सोचकर उसने अपनी चदरिया खोली और बड़े सरल हृदय से, समाधि-भाव से करुणापूरित होकर उस कुत्ते के घाव पोंछने लगा। घाव पोंछते-पोंछते उसका हृदय करुणा द्रवित हो छल-छला आया। उसकी आँखों से चार आँसू ढुलक पड़े और उसी के साथ फूट पड़ी अंतस् में निर्झरिणी बुद्धत्व की, खिल पड़ी कमलिनी अंतस् में सुवास की। घाव पोंछकर जब खड़ा हुआ तो उसकी साधना का प्रतिफल उसके साथ में था। वह प्रकाश से भरा था। ध्यान उसकी साधना का मार्ग बना और करुणा उसकी कसौटी। २४ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130