Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 12
________________ की तरह है । वह दिखने में एक बाँस का छोटा-सा टुकड़ा है, पर अगर सध जायें अगुंलियाँ, सध जाये सुर, तो बाँस की उस मुरली में रही हुई रिक्तता में वह असीम सामर्थ्य है जो संगीत को जन्म दे सकता है, संगीत का वह मेघ-मल्हार गा सकता है कि बादल बरस पड़ें, कि मृग खिंचे चले आयें, कि आदमी मुग्ध हो चलें । जीवन संगीतपूर्ण है, जीवन आनंदपूर्ण है, जीवन शांति का धाम और करुणा का मंगल-कलश है । जिसने जगत को देखा, पर अपना अंतर्जगत अनदेखा रह गया, उसका संगीत अपूर्ण है, उसका आनंद क्षणिक है, उसकी शांति में अशांति का दलदल है । उसकी करुणा निमित्तों से प्रभावी है । अपने को सुनकर तुम किसी और को सुनो, तो उस सुनने में जो सुरम्यता और सुकोमलता होगी, वह अनूठी ही होगी। अपने को देखकर सबको देखो तो वह देखना भी हमारे लिए आत्म-दर्शन और ब्रह्म-दर्शन की पहल होगी। स्वयं के रस में अभिभूत होकर तुम किसी रस को चखोगे भी, तो उसका स्वाद भी 'रसो वै सः' का अमृतपान करवायेगा । अपने तक न पहुँचे और सारे जगत तक पहुँच बनायी भी, तो सब तक पहुँचकर कहाँ पहुँचे ! चंद्रलोक तक पहुँच भी आये, तो भी क्या पहुँचे अगर अंतरलोक हमारी पहुँच से बाहर रहा। वह सिकंदर होना क्या अर्थ रखेगा जिसकी कब्र पर सिवा अफसोस के शिलालेख ही बन पाये। क्या हमारी जिंदगी केवल साठ - अस्सी या सौ साल की ही है? अगर ऐसा ही है तो महानुभाव, तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारे 365 दिन ब्रह्मा के एक दिन के बराबर है । आपके सौ साल ब्रह्मा के दस दिन हुए। अपने दस दिन के इस जीवन के लिए इतनी उठा पटक ! यह तो जीवन नहीं हुआ, जीवन के नाम पर करारा व्यंग्य हुआ । तुम छोटे नहीं हो, तुम्हारी उम्र दस दिन या सौ साल की नहीं है । हम सब तो चेतना के वह प्रवाह हैं, जैसे हिमालय से नदियाँ निकला करती हैं । फिर-फिर बर्फ पिघलती है, पानी बहता है, गंगा गंगासागर भी होती है। गंगासागर फिर बादल हो जाता है, पानी बरसता है और यूँ फिर - फिर पानी बर्फ़ हो जाता है । इस सारी प्रक्रिया में, परिक्रमा में, परिवर्तन में पानी का अपना मूल अस्तित्व तो रहता ही है । बच्चे-बूढ़े तो तुम होते हो। तुम होते हो यानी, देह और देह का राग बच्चा - बूढ़ा होता है । देह पैदा होती 1 निजता Jain Education International For Personal & Private Use Only 'www.jairelibrary.org

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