Book Title: Dhyan ka Vigyan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 11
________________ अपनी सुवास है । अंतर्जगत यानि हमारा अपना घर, हमारा अपना धरातल, हमारा अपना स्वर्ग, हमारा मुक्ति का साम्राज्य | अंतर्जगत की ओर कदम उठाकर हम अपने घर की ओर चलने की ही तैयारी कर रहे हैं। अपने घर में रहने और जीने से बड़ा सुख क्या होगा ! अंतर्जगत तो हमारा अपना घर है। एक ऐसा घर, जो अतीत के गलियारों से गुजर कर भी, वर्तमान के द्वार पर दस्तक देकर भी, भविष्य के इंद्रधनुष संजोकर भी, समय के हर शिलालेख से ऊपर है, समयातीत और कालातीत है । समय मनुष्य में परिवर्तन लाता है, लेकिन सारे परिवर्तनों का प्रभाव पर्यायों पर ही पड़ता है, अणु और अणु - ऊर्जा पर ही पड़ता है । जीवन तो एक धारा है, चेतना की धारा, चित् प्रवाह ! जीवन-तत्त्व बड़ा व्यापक है। जन्म से जिसकी शुरुआत हो, मृत्यु पर जिसका समापन, 'जीवन' ऐसा तत्त्व नहीं है। अगर जन्म, मृत्यु इन दो प्रवाहों के बीच की धारा को जीवन की संज्ञा देना चाहें तब तो जीवन की शुरुआत मनुष्य की केवल दो बूँद है और जीवन की समाप्ति चार मुट्ठी राख । जीवन स्वयं ही जीवितता का, जीवंतता का वाचक है । जीवन यानी ऊर्जा, जीवन यानी प्रवाह, एक ऐसा प्रवाह जिसे हम चेतना का अनादि प्रवाह कहेंगे। हम सभी, प्राणी मात्र ही इस चित् प्रवाह के कारण है । अणु में हजार परिवर्तन होते हैं, लेकिन जो चित्-प्रवाह है वह तो हर परिवर्तन के बावजूद चिर नवीन है, अपरिवर्तनीय है। बिजली का उपयोग उष्णता भी देता है, शीतलता भी । जिस यंत्र में, जिस व्यवहार में हम उसका उपयोग करेंगे, वह वैसा ही परिणाम दे जाएगी। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि बिजली ठंडी और गर्म है। बिजली तो, बस है, ऊर्जा की धारा है । हमारे जीवन में बह रही चेतना की ऊर्जा, बस है । उसका होना ही जीवन का होना है। उसका न होना ही हमारा मृत हो जाना है । चेतना तक पहुँचकर हम वास्तव में अपने आप तक ही पहुँच रहे हैं । देह अपनी जगह है, देह जीवन को अभिव्यक्ति देती है, जीवन की 1 ऊर्जा को थामे रहती है, किंतु देह में विचरण करने वाले प्राणतत्त्व तक पहुँचकर हम जीवन के उस संगीत और आनंद तक पहुँच रहे हैं, जो किसी बाँस की पोंगरी से फूटा करता है । मनुष्य कान्हा के हाथ में रखी हुई मुरली २ / ध्यान का विज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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