Book Title: Dhurtakhyan
Author(s):
Publisher:
View full book text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पान. धुर्ताख्यान. 41 भूमीनो नाम लोकें लंका दीधुं. पछे ते लंका रावणनी राजधानी थइ फरी गरुडे आवी पीताने पुछयु हे तातजी! भुख्यो र्छ \ खाउं ऋषीये कयु शर्व राक्षशने खाजा तेशर्व राक्षसने खाडगरडे पीताने अमृतनी ठाम पुछी ऋषीएं कडं हे वत्स! पाताळने नीचे धगधगायमान अग्नि शरव दिसे विट्यो शरव शुराशुरनी रखवालथी रहेलं एवो अमृतनो कुंद छे त्यांथी कोइ अमृतलइशके नहीं पण अनेक मधु घृत जल पापी अग्निने शंतुष्ट करतो कुंदमाहे जवा आपे अने तेमांथी अमृत लेवायतेने पण आई लावतां अनेक विघ्न उपजे एवो ऋषीनुं वचन शां. भली,पोतानी थे पांख मधुघृत तथा जल धारण करी पातालमा जइ अग्नीने शंतोषी पछे अग्नीएं देखाड्या अमृतना कुंदमाथी अमृत लइचाल्यो रशतामां कुंदरक्षक देवताओएं उद्घोषणा करी जे कोइ पक्षी अमृत लइजायछे ते शांभली शर्वे देवदानव क्षोभ पाम्याथका पोतपोताना स्थानकथी मुदगर मुशल शक्ति हल खड्ग दंडादीक शस्त्र लइ तेनी पाछल दोड्यां. अने हणो हणो छेदोछेदो एवो पोकार करता गरुडने कहेवा लाग्या अरे पापी अमृ For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58