Book Title: Dev Dravya ka Shastrartha Sambandhi Patra Vyavahar
Author(s): 
Publisher: Muni Manisagar

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Page 30
________________ नहीं है. यह धर्मवाद होनेसे अनुक्रमसे सब बातोंका खुलासा करना पडेगा. मगर १-२ वातोंके खुलासेसे काम नहीं चलेगा, यह खास ध्यानमें रखना. सम्बत् १९७९ वैशाख शुदी ८. हस्ताक्षर मुनि-मणिसागर, इन्दोर. ऊपर के पत्रका कुछभी जवाब दिया नहीं. और जाहिर सभामें या खानगीमें वैशाख सुदी ९ के रोज अपने स्थानपर न्यायसे सत्य ग्रहण करने वगैरह वातोंकी सही करके अपनी ४ पत्रिकाओंकी झूठी प्ररूपणा को सावित कर सके नहीं तथा अपनी झूठी प्ररूपणाको पीछी खींचकर सर्व संघसे अपनी भूलका मिच्छामि दुक्कडं देतेभी लज्जा आई इसलिये साधुधर्म की मर्यादा छोडकर गालियोंके हलके अनुचित शब्द लिखकर हेडबिलका खेल शुरू किया और मेरेको वैशाख सुदी १५ को दूसरी दफे फिरभी अपने स्थानपर शास्त्रार्थ के लिये बुलाया तब उस समयपर भी मैं वहां शास्त्रार्थ लिये जानेको तैयार था. इसलिये नियमानुसार सही के लिये उन्हों के पास आदमीके साथ पत्र भेजा सो लिया नहीं, वापिस करदिया, तब उस पत्रको फिर भी दूसरी बार रजिष्टरी करवा कर भेजा उस पत्रकी नकल यह है. श्रीमान्--विजय धर्मसूरिजी, आपका हेंडबील मिला.. १ आदर्माके जैसे जैसे वचन निकलें तैसे तैसेही उसकी जातिकी, कुलंकी और आत्माके परिणामों की परीक्षा जगत करता है. आपनेभी अपने गुणोंके अनुसार गालियों का भरा हुआ हैंडबील छपवाकर नाटकों के हेडवीलोंकी तरह बाजारमें चिपकाकर इन्दोर को अपना खूब परिचय बतलाया. ऐसे कामोंसे ही शासन की हिलना, साधुओंपरसं. अप्रीति लोगोंकी होती है. आपके भक्त लोगही आपके हेडबील की आपकी वाणीकी चेष्ठा देखकर खूब हंसरहे. हैं, तो फिर दूसरे हंसे. उसमें कहनाही. क्या है ? मैं आपके जैसा करना नहीं चाहता. इसलिये हेंडबील छपवाकर जवाब न देता हुआ, आपको पनसे ही जवाब देता हूं..

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