Book Title: Dev Dravya ka Shastrartha Sambandhi Patra Vyavahar
Author(s): 
Publisher: Muni Manisagar

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Page 77
________________ [२८ आभूषण, जीर्णोद्धारादिक के लिये प्रयोजन जितना द्रव्य रखकर जितनी ज्यादे आवक होवे उतनी रकम दूसरे मंदिरोंमें जहां पूजा वगेरह की व्यवस्था न होवे वहां पूंजा वगेरहकी व्यवस्था होनेके लिये या जीर्णोद्धारादिक के लिये संभाल पूर्वक खर्च करनेमें आये इत्यादि रीतिसंर व्यवस्था होनेसे गैरव्यवस्था दूर होगी. भगवान्की भक्ति का, देवव्यकी संभाल का बडा लाभ हरेकको मिलता रहेगा, दूसरे अपूज मंदिरोंमें पूजा होनेका व जीर्णोद्धार का महान् पुण्य होगा और पुराने दृष्टी लोगोंकी बादशाही सत्ता निकलजानेसे देवद्रव्यकी हानी होनेका प्रसंगमी नहीं आयेगा इसलिये अभी देवद्रव्यकी बहुत जरूरत है परंतु गेरव्यवस्था देखकर उसको सुधारने के बदले आवक का निषेध करना बडी भारी भूल है. ४७ · अंगर कहाजायकि दुष्कालादिकमें स्वधर्मीलोगोंके काममें देव द्रव्य नहीं आसक्ता इसलिये देव द्रव्यकी वृद्धि करने की जरूरत नहीं है ऐसा कहना भी बड़ी अज्ञानता है, क्योंकि देखिये दुष्कालमें भूखें मरते प्राणियोंके ऊपर अनुकंपा उपकार बुद्धि होनेसे सहायतादना महान् पुण्यका हेतु है. और वीतराग भगवान् को द्रव्यादि अर्पण करना अनुकंपा उपकार बुद्धि से नहीं किंतु भाक्ति रागसें एकंत निर्जरा के लिये मोक्ष प्राप्ति के हेतु भूतहै. इसलिये यथायोग्य दोनों कार्यों में अपनी शक्ति व भावना के अनुसार अपने घरका द्रव्य खर्च करना योग्य है. जैसे-गृहस्थ व्यवहारमें अपने भाई को दुःख पडे तब उनका कष्ट दूर करनेके लिये अपने द्रव्य से सहायता देने में आतीहै, परंतु अपने द्रव्य. का लोभ दशासे बचाव करके दूसरेके द्रव्यसे सहायता देने की अशिा रखना न्याय विरुद्ध होताहै. तैसेही-धर्म व्यवहार में भी दुष्कालांदिक में पीडित अपने स्वधर्मी भाइयों का कष्ट दूर करने के लिये अपने घरके द्रव्यसे सहायता देना योग्य है, परन्तु अपने द्रव्य का लोभ दशासै बचाव करके दूसरे के द्रव्य से ( देवद्व्यसे) सहायता देने की आशा

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