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इसलिये भगवान् की भक्ति में 'धनवान् का. और गरीवं का भेद बतला कर भोले लोगोंको झगडेके मार्ग में गैरनेका लिखना सर्वथा अनुचित है.. । २८ अगर कहा जावे कि दस वीस आदमी साथ में भगवान्की पूजा करने को जावें तब पहिली पूजा कौन करे उस में झगडा हो जाये इसलिये उसका निवारण करने के लिये चढावा होता है. यह कहना भी सर्वथा अनुचित है, क्यों कि 'देखिये-जिस मंदिर में प्रामादिक की जागीर से पूजा की सामग्री व जीर्णोद्धारादिक के लिये पूरीपूरी देव द्रव्य की आवक होवे और जिस मंदिर में कहीं कहीं पूजा आरती के चढावेका अभी रिवाज भी न होवे उस मंदिरमें १०-२० तो क्या मगर १००-२०० आदमी साथ में पूजा करने को जाते हैं तोभी सब कोई अपनी अपनी योग्यता मुजब अनुक्रमसे शांतिपूर्वक पूजा करते . हैं मगर क्लेशका कोई कारण नहीं होता, तो फिर १०-२० आदमी में क्लेश कैसे हो सकता है. जिस जगह भाव पूर्वक शांतिसे अपनी आत्म निर्मलता के लिये तीन जगतके पूज्यनीय वीतराग परमात्माकी भक्ति करना है वहां तो क्लेशका कोई कामही नहीं है किंतु अनसमझ लोग मंदिरमें वीतराग प्रभुके दरवारमें भी क्लेश करलेवें तो उन्होंके कर्मोंका दोष है: चढावातो सीर्फ भगवान्की भक्ति के लिये और देव द्रव्यकी वृद्धिके लिये पूजा करनेवालोंके जव भाव चढते हो तब होता है, अन्यथा नहीं हो सकता. इसलिये प्रभु पूजामें चढावा प्रत्यक्षही भक्ति का कारण है, क्लेशका नहीं. उसको क्लेश निवारण का कहना सर्वथा. मिथ्या है. 'अगर किसी वेसमझने किसी जगहपर कभी क्लेश करभी लिया तो क्या हुआ. उसको सर्व जंगह. एवम् हमेशा क्लेशका कारण कहना कितनी । बडी भूल है. इस बातको पाठकग़ण आपही विचार सकते हैं..