Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 432
________________ व्यक्ति और समाज ४११ संघ को नमस्कार करते हैं, जिस संघ में छोटे-बड़े सभी साधु-साध्वी और श्रावकश्राविका सम्मिलित होते हैं। उस धर्म-संघ की भगवान् वन्दना करते हैं। बुद्ध के जीवन में भी संघ की महत्ता का एक रोचक प्रसंग आता है। वहाँ भी श्रमण-संघ को एक पवित्र धारा के रूप में माना गया है। श्रावस्ती का सम्राट प्रसेनजित जब तथागत बुद्ध को. वस्त्र दान करने के लिए आता है, तो बुद्ध उससे पूछते हैं"सम्राट ! तुम दान का पुण्य कम लेना चाहते हो या अधिक ?" सम्राट ने उत्तर दिया-"भन्ते! कोई भी कुशल व्यापारी अपने माल का अधिक से अधिक लाभ चाहेगा, कम नहीं, मैं भी अपने दान का अधिक से अधिक लाभ ही चाहता हूँ।" सम्राट् के उत्तर पर तथागत बुद्ध ने एक बहुत बड़ी बात कह दी_"सम्राट! यदि अधिक से अधिक लाभ लेना चाहते हो, तो तुम्हारा यह दान (वस्त्र) मुझे अर्पण नहीं करके संघ को अर्पण कर दो। मेरी अपेक्षा संघ को अर्पण करने में अधिक पुण्य होगा। संघ मुझसे भी अधिक महान् है।" __ संघ के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाली इस प्रकार की घटनाएँ संघीय जीवन का सुन्दर दर्शन उपस्थित करती हैं। हजारों वर्ष के बाद आज भी हमारे जीवन में संघ की महानता और गौरव गाथा, इन संस्मरणों के आधार पर सुरक्षित है। भले ही बीच के काल में कितनी ही राजनीतिक हलचलें हुईं, उथल-पुथल हुईं, समाज के कई टुकड़े हो गए, संघ की शक्ति अलग-अलग खण्डों में विभक्त हो गई, पर टुकड़े-टुकड़े होकर भी हम जहाँ भी रहे, संघ बनाकर रहे, समूह और समाज बनाकर रहे। यही हमारी सांस्कृतिक परम्परा का इतिहास है। संघ की गौरव-गाथाओं ने आज भी हमारे जीवन में संघीय जीवन का आकर्षण भर रखा है, संघीय सद्भाव को सहारा देकर टिकाए रखा है। संगठन की शक्तिमत्ता : संघ एक धारा है, एक निर्मल प्रवाह है, जो इसके परिपार्श्व में खड़ा रहता है, निकट में आता है, उसे यह पवित्र धारा जीवन अर्पण करती चली आती है। स्नेह, सद्भाव और सहयोग का जल-सिंचन कर उसकी जीवन-भूमि को हरी-भरी करके लहलहाती रहती है। जो धारा इस धारा से टूट कर दूर पड़ गई,.वह धारा आगे चलती-चलती किसी अज्ञान, अन्धविश्वास तथा निहितस्वार्थ के गड्ढे में पड़कर संकुचित हो गई और उसका प्रवाह खत्म हो गया, उसका जीवन समाप्त हो गया। गंगा की विराट् धारा बहती है, उसमें स्वच्छता, निर्मलता और पवित्रता रहती है. किन्तु उसमें से कुछ बहता जल यदि कभी पृथक् धारा के रूप में अलग पड़ जाता है। और किसी गड्ढे में अवरुद्ध हो जाता है, तो वह अपनी पवित्रता बनाए नहीं रख पाता, वह जीवनदायिनी धारा नहीं रह पाता, बल्कि जीवननाशिनी धारा बन जाता है। वह विछिन्नधारा सड़कर वातावरण में सड़ांध पैदा करने लग जाती है और सड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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