Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 517
________________ ४९६ चिंतन की मनोभूमि वह जब तक संसार की भूमिका पर स्थित है, अशुद्ध ही प्रतीत होती है। जो बन्धन है, वह तो सबके लिए ही बन्धन है। लोहे की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन है और सोने की बेड़ी का बन्धन भी बन्धन ही है। जब तक तीर्थंकर प्रारब्ध-कर्म के बन्धन से परे नहीं होते हैं, तब तक वह भी संसार की भूमिका में होते हैं, और संसार की भूमिका अशुद्ध भूमिका है। आत्मा जब विशुद्ध होती है पर्याय की दृष्टि से भी विशुद्ध होती है। तब वह मुक्त हो जाती है, संसार की भूमिका से ऊपर उठ कर मोक्ष की भूमिका पर चली जाती है। इस प्रकार तीर्थङ्कर और साधारण आत्माएँ संसार की भूमिका पर पर्याय की दृष्टि से एक समान हैं। आप सोचेंगे, तो पायेंगे कि जैन धर्म ने कितनी बड़ी बात कही है। जब वह सत्य की परतें खोलने चलता है, तो किसी का भेद वहाँ नहीं समझता, सिर्फ सत्य को स्पष्ट करना ही उसका एकमात्र लक्ष्य रहता यदि हम द्रव्य दृष्टि से आत्मा को देखते हैं -तो द्रव्य अर्थात् मूलस्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा ज्ञानमय है, शुद्ध एवं पवित्र है। जल में चाहे जितनी मिट्टी मिल गई हो, कोयले का चूरा पीस कर डाल दिया गया हो, अनेक रंग मिला दिये गये हों, जल कितना ही अशुद्ध, अपवित्र और गन्दा क्यों न प्रतीत होता हो, पर यदि आपकी दृष्टि में सत्य को समझने की शक्ति है, तो आप समझेंगे कि जल अपने आप में क्या चीज है ? जल स्वभावतः पवित्र है या मलिन ? वह मलिनता और गन्दगी जल की है या मिट्टी आदि की ? यदि आप इस विश्लेषण पर गौर करेंगे तो यह समझ लेंगे कि जल, जल है, गन्दगी, गन्दगी है, दोनों भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, एक-दूसरे को प्रभावित करते हुए भी, अभिन्न सम्पर्क में रहते हुए भी दोनों अलग-अलग हैं उसी प्रकार अनन्त-अनन्त काल से आत्मा के साथ कर्म का सम्पर्क चला आ रहा है, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध जुड़ा आ रहा है, पर वास्तव में आत्मा, आत्मा है, वह कर्म नहीं है और, कर्म जो पहले था, वह अपनी उसी धुरी पर आज भी है, उसी स्थिति में है, वह कभी आत्मा महीं बना सका है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि मूल स्वरूप की दृष्टि से विश्व की प्रत्येक आत्मा पवित्र है, शुद्ध है। वह जल के समान है, उसमें जो अपवित्रता दिखाई पड़ रही है, वह उसकी स्वयं की नहीं, अपितु कर्म के कारण है-असत् कर्म, असत् आचरण और असत् संकल्पों के कारण है। आत्मा परम पवित्र है: यह बात जब हम समझ रहे हैं कि आत्मा की अपवित्रता मूल आत्मा की दृष्टि से कर्म के कारण है, तब हमें यह भी सोचना होगा कि वह अपवित्र क्यों होती है और फिर पवित्र कैसे बनती है ? हमारे मन में जो असत् संकल्प की लहर उठ रही हैं, दुर्विचार जन्म ले रहे हैं, घृणा, वैर और विद्वेष की भावनाएं जग रही हैं, वे असत् कर्म की ओर प्रवृत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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