Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 559
________________ ५३८ | चिंतन की मनोभूमि अज्ञानवाद को और बुद्ध के एकान्त एवं सीमित अव्याकृतवाद को स्वीकार नहीं किया क्योंकि तत्त्व चिन्तन के क्षेत्र में किसी वस्तु को केवल अव्याकृत अथवा अज्ञात कह देने भर से समाधान नहीं होता । अतएव उन्होंने अपनी तात्त्विक दृष्टि और तर्कमूलक दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का यथार्थ और स्पष्ट निर्णय किया। उनकी उक्त निर्णय-शक्ति के प्रतिफल हैं—अनेकान्तवाद, नयवाद, स्याद्वाद और सप्त भंगीवाद । विभज्यवाद : . एक बार बुद्ध के शिष्य शुभमाणवक ने बुद्ध से पूछा- 'भंते ! सुना है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होता । आपका क्या अभिप्राय है?" बुद्ध ने इसका जो उत्तर दिया, वह मज्झिम निकाय (सुत्त, ९, ९) में उपलब्ध है उन्होंने कहा- " माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं हूँ, ।" इस प्रसंग पर बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी स्वीकार किया है। विभज्यवाद का अभिप्राय है- प्रश्न का उत्तर एकांशवाद में नहीं, परन्तु विभाग करके अनेकांशवाद में देना । इस वर्णन पर से विभज्यवाद और एकांशवाद का परस्पर विरोध स्पष्ट हो जाता है । परन्तु बुद्ध सभी प्रश्नों के उत्तर में विभज्यवादी नहीं थे। अधिकतर वे अपने प्रसिद्ध अव्याकृतवाद का ही आश्रय ग्रहण करते हैं । 44 जैन आगमों में भी 'विभज्यवाद' शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे ? इसके उत्तर में सूत्रकृतांग में कहा गया है कि उसे विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। मूल - सूत्रगत 'विभज्यवाद' शब्द का अर्थ, टीकाकार शीलांक 'स्याद्वाद' और 'अनेकान्तवाद' करते हैं । बुद्ध का विभज्यवाद सीमित क्षेत्र में था, अतः वह व्याप्य था, परन्तु महावीर का विभज्यवाद समग्र तत्व-दर्शन पर लागू होता था, अतः व्यापक था और तो क्या, स्वयं अनेकान्त पर भी अनेकान्त का सार्वभौम सिद्धान्त घटाया गया है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं, अनेकान्त भी अनेकान्त है। प्रमाण अनेकान्त है और नय एकान्त ।" इतना ही नहीं, यह अनेकान्त और एकान्त सम्यग् है या मिथ्या है— इस प्रश्न का उत्तर भी विभज्यवाद से दिया गया है। आचार्य अकलंक की वाणी है ३ ..अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध परस्पर विरोधी-से प्रतीत होने वाले अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यग् अनेकान्त है, तथा वस्तु में तद् वस्तु स्वरूप से भिन्न अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना केवल अर्थशून्य वचन विलास मिथ्या अनेकान्त है । इसी प्रकार हेतु - विशेष के सामर्थ्य से प्रमाण-निरूपित वस्तु के एक देश को ग्रहण करने वाला सम्यग् एकान्त है और वस्तु के किसी एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य अशेष धर्मों १. विभज्ज वायं च वियागरेज्जा २. अनेकांतोप्यनेकान्तः प्रमाण- नय साधनः तत्त्वार्थराजवार्तिक १, ३. Jain Education International ६, ७ For Private & Personal Use Only - सूत्रकृतांग १, १४, २२ - स्वयम्भू स्तोत्र www.jainelibrary.org

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