Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 534
________________ - वसुधैव कुटुम्बकम् ५१३ कल्पना कीजिए, आप किसी रास्ते से गुजर रहे हैं। आपने वहाँ किसी बच्चे को देखा, जो घायल है, वेदना से कराह रहा है। आपका हृदय द्रवित हो गया और आपके हाथ ज्यों ही उसे उठाने को आगे बढ़ते हैं, आवाज आती है, यह तो 'चाण्डाल' है, भंगी है; इसका क्या अर्थ हुआ? आप में अहिंसा और करुणा की एक क्षीण ज्योति जली तो थी, पर जातिवाद की हवा के एक हल्के से झोंके से वह सहसा बुझ गई। आप करुणा को भूलकर जातिवाद के चक्कर में आ जाते हैं कि यह तो भंगी का लड़का है, भला इसे मैं कैसे छू सकता हूँ? चमार का लड़का है, कैसे उठाएँ ? इस क्षुद्र भावना की गन्दी धारा में बह जाते हैं आप, जहाँ प्रेम का पवित्र जल नहीं, किन्तु जातिवाद का गन्दा पानी बह जाता है। आपको ऐसे समय में यह भावना होनी चाहिए कि जो वेदना से कराह रहा है, घायल है, वह आत्मा है। शरीर का जन्म चाहे जहाँ हुआ हो, चाहे जिस घर में हुआ हो, आत्मा का जन्म तो कहीं नहीं होता। आत्मा तो आत्मा है। वह ब्राह्मण के यहाँ हो तो क्या, शूद्र के यहाँ हो तो क्या ? हम तो आत्मा की सेवा करते हैं, शरीर की नहीं। आत्मा की सेवा करनी है, तो फिर शरीर के सम्बन्ध में यह क्यों देखा जाता है कि वह भंगी का शरीर है, या चमार का? भंगी और चमार की दृष्टि यदि है, तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपने अब तक आत्मा को ठीक तरह परखा ही नहीं। आत्मा के नहीं; शरीर के ही दर्शन आप कर रहे हैं। बाहर में जो जाति-पाँति के झगड़े हैं, दायरे हैं, आप अभी तक उन्हीं में बन्द हैं। आत्मा न भंगी है, न चमार है, और न काला है, न गोरा है। आत्मा-आत्मा में कोई भेद नहीं है। आत्मा में परमात्मा का वास है। वस्तुतः जो आत्मा है, वही परमात्मा है। ये उदात्त विचार, यह विशाल दृष्टिकोण जब तक आपके हृदय में जाग्रत नहीं होता, तब तक आप परमात्मतत्व की ओर नहीं बढ़ सकते। मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य परस्पर में भेद की दीवारें खड़ी कर देता है, अपने मन में इतने क्षुद्र घेरे बना लेता है, उसकी दृष्टि जातीयता के छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाती है तो वह अपने ही समान मानव जाति की सेवा और सहायता नहीं कर पाता। भारतीय संस्कृति की विराट् भावनाएँ, उच्च कल्पनाएँ यहाँ तक पहुँची हैं कि यहाँ साँप को भी दूध पिलाया जाता है। संसार भर में भारत ही एक ऐसा देश मिलेगा, जहाँ पशु-पक्षियों के भी त्योहार मनाये जाते हैं। नाग पंचमी आई तो साँप को दूध पिलाया गया, गोपाष्टमी आई तो गाय और बछड़े की पूजा की गई। 'सीतला' (राजस्थान का त्योहार) आई तो बिचारे गर्दभराज को पूजा प्रतिष्ठा मिल गई। यहाँ की दया और करुणा का स्वर कितना मुखर है कि जो साँप दूध पीकर भी जहर उगलता है, मनुष्य को काटने के लिए तैयार रहता है, जो मनुष्य के प्राणों का शत्रु है, उसे भी दूध पिलाया जाता है, शत्रु को भी मित्र की तरह पूजा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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