Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 547
________________ ५२६ चिंतन की मनोभूमि प्रतिपाद्य विषय व्याप्य है, दोनों में व्याप्य-व्यापक-भाव सम्बन्ध है। अनन्तानन्त अनेकान्तों में शब्दात्मक होने से सीमित १ स्याद्वादों की प्रवृति नहीं हो सकती, अतः स्याद्वाद अनेकान्त का व्याप्य है, व्यापक नहीं। भंग कथन-पद्धति : शब्द-शास्त्र के अनुसार प्रत्येक शब्द के मुख्यरूप में दो वाच्य होते हैं—विधि और निषेध। प्रत्येक विधि के साथ निषेध है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि है। एकान्त रूप से न कोई विधि है, और न कोई निषेध। इकरार के साथ इन्कार और इन्कार के साथ इकरार सर्वत्र लगा हुआ है। उक्त विधि और निषेध के सब मिलाकर सप्तभंग होते हैं। सप्त भंगों के कथन की पद्धति यह है :--. १–स्याद् अस्ति २-स्याद् नास्ति ३–स्याद् अस्ति-नास्ति ४–स्याद् अवक्तव्य ५–स्याद् अस्ति अवक्तव्य ६--स्याद् नास्ति अवक्तव्य ७–स्याद् अस्ति-नास्ति अवक्तव्य सप्त भंगी में वस्तुतः मूल भंग तीन ही हैं-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य। इसमें तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी-इस प्रकार चार भंग मिलाने से सात भंग होते हैं। द्विसंयोगी भंग ये हैं— अस्ति-नास्ति, अस्ति अवक्तव्य और नास्ति अवक्तव्य। मूल भंग तीन होने पर भी फलितार्थ रूप से सात भंगों का उल्लेख भी आगमों में उपलब्ध होता है। भगवती सूत्र में जहाँ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का वर्णन आया है, वहाँ स्पष्ट रूप से सात भंगों का प्रयोग किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने सात भंगों का नाम गिना कर सप्त भंग का प्रयोग किया है।३ भगवती सूत्र में अवक्तव्य को तीसरा भंग कहा है।४ जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण भी अवक्तव्य को तीसरा भंग मानते हैं।५ कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय में इसको चौथा माना है, पर अपने प्रवचन सार में १. अभिलाप्य भाव, अनभिलाप्य भावों के अनन्तवें भाग हैं-'पण्णवणिज्जा भावा, अणन्तभागो दु अणभिलप्पाणं" -गोमट्टसार। अनन्त का अनंतवाँ भाग भी अनन्त ही होता है, अतः वचन भी अनन्त हैं। तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६, ५२ के विवरण में कहा है-"एकत्र वस्तुनि अनन्तानां धर्माणा मभिलापयोग्यनामुपगमादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याद्वादिनां भवेयुः।" यह ठीक है कि वचन अनन्त है, फलतः स्याद्वाद भी अनन्त है, परन्तु वह अनेकान्त धर्मो का अनन्तवाँ भाग होने के कारण सीमित है, फलत: व्याप्य है। २. भगवती सूत्र, श. १२, ३०१०, प्र. १९-२० ३ . पंचास्तिकाय, गाथा १४ ४. भगवती सूत्र, श. १२, ३०१०, प्र. १९-२० ५. विशेषावश्यक भाष्य, गा. २१ -३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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