Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 556
________________ जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद | ५३५ भिन्न-भिन्न समस्त पदार्थों की वाच्यता स्वीकार कर ली जाए, तो विभिन्न पदार्थों के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग व्यर्थ सिद्ध होगा। अत: वाचक शब्द की अपेक्षा से भी अभेद वृत्ति नहीं, भेद वृत्ति ही प्रमाणित होती है। प्रत्येक पदार्थ गुण और पर्याय स्वरूप है। गण और पर्यायों में परस्पर भेदाभेद सम्बन्ध है। जब प्रमाण-सप्तभंगी से पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुणपर्यायों में कालादि के द्वारा अभेद-वृत्ति या अभेद का उपचार होता है और अस्ति या नास्ति किसी एक शब्द के द्वारा ही अनन्त गुण पर्यायों के पिण्ड स्वरूप अखण्ड पदार्थ का; अर्थात् अनन्त धर्मों का युगपत् परिबोध होता है और जब नय-सप्त भंगी से पदार्थ का अधिगम किया जाता है, तब गुण और पर्यायों में कालादि के द्वारा भेद वृत्ति अथवा भेदोपचार' होता है और अस्ति या नास्ति आदि किसी एक शब्द के द्वारा द्रव्यगत अस्तित्व या नास्तित्व आदि किसी एक विवक्षित गुण-पर्याय का क्रमशः निरूपण होता है। विकलादेश (नय) वस्तु के अनेक धर्मों का क्रमशः निरूपण करता है और सकलादेश (प्रमाण) सम्पूर्ण धर्मों का युगपत् निरूपण करता है। संक्षेप में इतना ही विकलादेश और सकलादेश में; अर्थात् नय और प्रमाण में अन्तर है। प्रमाण सप्तभंगी में अभेद वृत्ति या अभेदोपचार का और नय सप्त भंगी में भेद वृत्ति या भेदोपचार का जो कथन है, उसका अन्तर्मम यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में जहाँ द्रव्यार्थिक भाव हैं, वहाँ तो अनेक धर्मों में अभेद वृत्ति स्वतः है और जहाँ पर्यायार्थिक भाव है वहाँ अभेद का उपचार—आरोप करके अनेक धर्मों में एक अखण्ड अभेद प्रस्थापित किया जाता है और नय सप्त भंगी में जहाँ द्रव्यार्थिकता है, वहाँ अभेद में भेद का उपचार करके एक धर्म का मुख्यत्वेन निरूपण होता है, और जहाँ पर्यायार्थिकता है, वहाँ तो भेदवृत्ति स्वयं सिद्ध होने से उपचार की आवश्यकता नहीं होती। व्याप्य-व्यापक-भाव : स्याद्वाद और सप्तभंगी में परस्पर क्या सम्बन्ध है ? यह भी एक प्रश्न है। दोनों में व्याप्य-व्यापक भाव सम्बनध माना जाता है। स्याद्वाद 'व्याप्य' है और सप्त भंगी 'व्यापक'। क्योंकि जो स्याद्वाद है, वह सप्त भंगी होता ही है, यह तो सत्य है। परन्तु जो सप्त भंगी है, यह स्याद्वाद है भी और नहीं भी। नय स्याद्वाद नहीं है, फिर भी उसमें सप्त भंगीत्व एक व्यापक धर्म है, जो स्याद्वाद और नय-दोनों में रहता है। "अधिक देश-वृत्तित्वं व्यापकत्वम् अल्प देश-वृत्तित्वं व्याप्यत्वम्।" अनन्त भंगी क्यों नहीं?: १. सकलादेशो हि यौगपद्येन अशेषधर्मातमकं वस्तु कालादिभिरभेदवृत्या प्रतिपादयति, अभेदोपचारेण वा, तस्य प्रमाणाधीनत्वात्। विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचारेण, भेद-प्राधान्येन वा, तस्य नयायत्तत्वात्। -तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक १, ६,५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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