Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 541
________________ ५२० चिंतन की मनोभूमि का निर्मल अंश तो रहता ही है। यदि स्नेह न हो, तो मानव, मानंव ही नहीं रहता, पशु से भी निकृष्ट बन जाता। यह स्नेह ही मानव को परस्पर सहयोग, समर्पण और सेवा के उच्चतम आदर्श की ओर प्रेरित करता है। व्यक्तिगत जीवन से समष्टिगत • जीवन की व्यापक महानता की ओर अग्रसर करता है । जैन साधना में व्यक्तिगत जीवन की साधना से भी अधिक महत्त्व सामाजिक साधना का है । सामाजिक साधना से मेरा मतलब है- निष्काम भाव से जन-सेवा ! इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर ने तो यहाँ तक कहा है कि—एक व्यक्ति तप करता है, कठोर एवं लम्बे तप के द्वारा शरीर को तपा रहा है और तभी कहीं आवश्यकता हुई सेवा करने की, तो वह अब क्या करे ? प्राथमिकता किसे दी जाए, सेवा को या तप को ? यदि वह इतना समर्थ है कि किसी वृद्ध या रोगी आदि की सेवा करता हुआ भी अपना तप चालू रख सकता हो, तब तो तप भी चालू रखे और सेवा भी करे और यदि दोनों काम एक साथ चालू रखने में समर्थ न हो, तो फिर तप छोड़कर सेवा करे। उपवास आदि तप को गौण किया जा सकता है, परन्तु सेवा को गौण नहीं किया जा सकता । यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि उपवास जो कि हमारा आध्यात्मिक प्रण है, यदि उसे तोड़ते हैं तो पाप लगना चाहिए। इसके उत्तर में आचार्य जिनदास, आचार्य सिद्धसेन आदि जिनका कि चिन्तन जितना गहरा था, उतना ही उन्मुक्त भी था, जो सत्य उन्होंने समझ लिया, उसे व्यक्त करने में कभी आगा-पीछा नहीं किया, वे कहते हैं कि उपवास करने से जितनी शुद्धि और पवित्रता होती है, उससे भी अधिक शुद्धि और पवित्रता सेवा में होती है, उपवास तुम्हारी व्यक्तिगत साधना है, उसका लाभ सिर्फ तुम्हारे तक ही सीमित है, परन्तु सेवा एक विराट् साधना है। सेवा दूसरों के जीवन को भी प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति की जीवन- नौका सेवा के बिना डगमगा रही हैं, विचलित हो रही है, जिसकी भावना चंचल हो रही है, धर्म-साधना गड़बड़ा रही है, सेवा उसे सहारा देती है, साधना में स्थिर बनाती है। इस प्रकार एक बुझता हुआ दीपक फिर से जगमगा उठता है, सेवा का स्नेह पाकर। दीप से दीप जलाने का यह पवित्र कार्य सेवा के माध्यम से ही बन पड़ता है। एक आत्मा को जागृत करना और उसमें आनन्द की लौ जगा देना, कितनी उच्च साधना है, और यह साधना सेवा के द्वारा ही सम्भव हो सकती है इसलिए जो आनन्द और पवित्रता सेवा के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, वह तप के द्वारा नहीं। जब तप करने के लिए तैयार हो तो पहले साधक को यह देखना है कि किसी को मेरी सेवा की तो आवश्यकता नहीं ? वह तप की प्रतिज्ञा करते समय भी मन में यह संकल्प रखता है। कि यदि मेरी सेवा की कहीं आवयकता हुई तो मैं तप को बीच में छोड़कर सेवा को प्राथमिकता दूँगा । सेवा मेरा पहला धर्म होगा। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561