Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 543
________________ ५२२ चिंतन की मनोभूमि प्रफुल्लित कर देना , यही मेरा उपदेश है। उस उपदेर. का जो भी पालन करता है, वही मेरी उपसना करता है, और मैं उसे बहुत धन्यवाद देता हूँ।"१ किन्तु आज जब मानव के व्यावहारिक जीवन पर दृष्टिपात् करता हूँ, तो कुछ और ही पाता हूँ। वहाँ भगवान् के उक्त उपदेश का सीधे उलटा प्रतिफलन देखा जा रहा है। मैं पूछता हूँ, भगवान के नाम पर बाहरी ऐश्वर्य का अम्बार तो आपने लगा दिया, भगवान् को चारों ओर सोने से मढ़ दिया है। कहना चाहिए, उसे सोने के नीचे दबा दिया है। मन्दिरों के कलशों पर सोना चमक रहा है पर, कभी यह भी देखा है आपने कि यह मनके कलश का सोना, काला पड़ रहा है या चमक रहा है। मन दरिद्र बना हुआ है या ऐश्वर्यशाली ? यह आडम्बर किसके लिए है ? भगवान् की पूजा और महिमा के लिए. या अपनी पूजा-महिमा के लिए ? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, यह सब अपने अहंकार को जागृत करने के ही साधन बन रहे हैं। व्यक्ति के अपने अहं का पोषण हो रहा है, इन आडम्बरों के द्वारा ; और इस प्रकार दूसरों के अहं को ललकारने का माध्यम बनता है भान का मन्दिर ।। एक ओर तो हम कहते हैं-"अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है। "यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे" जो पिण्ड में हैं, वही ब्रह्माण्ड में हैं। ईश्वर का, भगवान् का प्रतिविम्ब प्रत्येक आत्मा में पड़ रहा है। हमारे धर्म एक ओर प्रत्येक प्राणी में भगवान् का रूप देखने की बात करते हैं। परन्तु दूसरी ओर अन्य प्राणी की बात तो छोड़ दीजिए, सृष्टि का महान् प्राणी-मनुष्य जो हमारा ही जाति-भाई है, वह भूख से तड़प रहा है। चैतन्य भगवान् छटपटा रहा है और हम मूर्ति के भगवान् पर दूध और मक्खन का भोग लगा रहे हैं, मेवा-मिष्ठान चढ़ा रहे हैं। यह मैं पूर्वाग्रहवश किसी विशेष पूजा-पद्धति एवं परम्परा की आलोचना नहीं कर रहा हूँ। किसी पर आक्षेप करना न मेरी प्रकृति है, और न मेरा सिद्धान्त। मैं तो साधक के अन्तर में विवेक जागृत करना चाहता हूँ ; और चाहता हूँ उसे अतिरेक से बचाना। कभी-कभी अतिरेक सिद्धान्त की मूल भावना को ही नष्ट कर डालता है और इस प्रकार उपासना. कभी-कभी एक विडम्बना मात्र बन कर रह जाती है। भारतीय चिन्तन सदा से यह पुकार रहा है कि भक्त ही भगवान है। भगवान की विराट् चेतना का छोटा संस्करण ही भक्त है। बिन्दु और सिन्धु का अन्तर है। बिन्दु, बिन्दु है जरूर, पर उसमें सिन्धु समाया हुआ है, यदि बिन्दु ही नहीं है, तो फिर सिन्धु कहाँ से आएगा ? सिन्धु की पूजा करने का मतलब है, पहले बिन्दु की पूजा की जाए ! माला फेरने या जप करने मात्र से उसकी पूजा नहीं हो जाती, बल्कि बिन्दु में जो उसकी विराट् चेतना का प्रतिविम्ब है, उसकी पूजा-सेवा करने से ही उसकी (प्रभु की) पूजा-सेवा हो सकती है। अतः भगवान् को मन्दिरों में ही नहीं, १. आणाराहणं दंशणं खु जिणाणं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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