Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 538
________________ विश्वकल्याण का चिरंतन पथ : सेवा का पथ ५१७/ तो उनका क्या उपयोग है ? कहाँ है उन देवताओं को फुर्सत, और फुर्सत भी है तो उपदेश सुनकर ग्रहण करने की योग्यता कहाँ है उनमें। रात-दिन भोग-विलास और ऐश्वर्य में डूबे रहने के कारण देवता भी अपने आप को इन्द्रियों की दासता से मुक्त नहीं कर सकते। तो, आखिर ये सब किसके लिए बने हैं ! मनुष्य के लिए ही तो! मानव की आत्मा को प्रबुद्ध करने के लिए ही तो सब शास्त्रों ने वह ज्योति जलाई है, वह उद्घोष किया है, जिसे देख और सुनकर उस का सुप्त ईश्वरत्व जाग सके। सुख-दुःख का कारण : - संसार में जितने भी कष्ट हैं, संकट और आपत्तियाँ हैं, उलझनें और संघर्ष हैं, उनकी गहराई में जाकर यदि हम ठीक-ठीक विश्लेषण करें; तो यही पता चलेगा कि जीवन में जो भी दःख हैं वे पूर्णतः मानवीय हैं, मनुष्य के द्वारा मनुष्य पर लादे गये हैं। हमारे जो पारस्परिक संघर्ष हैं, उनके मूल में हमारा वैयक्तिक स्वार्थ निहित होता है, जब स्वार्थ टकराता है, तो संघर्ष की चिनगारियाँ उछलने लगती हैं। जब प्रलोभन या अहंकार पर चोट पड़ती है, तो वह फूंकार उठता है, परस्पर वैमनस्य और विद्वेष भड़क जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति से दूसरा व्यक्ति, एक समाज से दूसरा समाज, एक सम्प्रदाय से दूसरा सम्प्रदाय और एक राष्ट्र से दूसरा राष्ट्र अपने स्वार्थ और अहंकार के लिए परस्पर लड़ पड़ते हैं, एक-दूसरे के मार्ग में काटे बिखरते हैं, एक-दूसरे की प्रगति का रास्ता रोकने का प्रयल करते हैं और परिणामस्वरूप संघर्ष, आपत्तियाँ और विग्रह खड़े हो जाते हैं। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तबाह हो जाते हैं। आप देखते हैं कि संसार में जो महायुद्ध हुए हैं, नरसंहार हुए हैं, और अभी जो चल रहे हैं, वे प्राकृतिक हैं, या मानवीय ? स्पष्ट है, प्रकृति ने उन युद्धों की आग नहीं सुलगाई है, अपितु मनुष्य ने ही वह आग लगाई है। मनुष्य को लगाई हुई आग में आज मनुष्य जाति नष्ट हो रही है, परेशान और संकटग्रस्त बन रही है। रागात्मक करुणा का जीवन में स्थान : जैन दर्शन कहता है, और हमारे पड़ौसी अन्य दर्शन भी कहते हैं कि जीवन में संघर्षों का मूल ढूंढो और उसका निराकरण करो। तो, जैसा कि हमने ऊपर विचार किया है, संघर्ष का मूल, हमें मिलता है स्वार्थ और अहंकार में। किन्तु मनुष्य का जीवन स्वार्थों और अहंकारों की दहकती आग पर नहीं चल सकता, बल्कि उसका विकास करुणा और अहिंसा की शीतल धरती पर ही हो सकता है। . __ अहिंसा की एक धारा रागात्मक भी है, जिसे हम समझने की भाषा में रागात्मक करुणा, स्नेह तथा प्रेम भी कह सकते हैं। उसी के आधार पर मनुष्य का पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन टिका हुआ है। जीवन में पति-पत्नी एक भूमिका परब, एक-दूसरे के जीवन में सहयोगी बन कर चल रहे है, सुख-दुख को परस्सर बॉट कर चल रहे है। इस प्रकार सेवा, समर्पण के आधार पर उनका जीवन-चक्र जो चल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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