Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 536
________________ ५४ विश्वकल्याण का चिरंतन पथ : सेवा का पथ संसार के सभी विचारकों ने मनुष्य को एक महान् शक्ति के रूप में देखा है। मानव की आत्मा महान् आत्मा है, अनन्त-अनन्त शक्तियों का स्रोत छिपा है उसमें। अणु से विराट बनने का पराक्रम है उसके पास। भगवान् महावीर ने बताया है किमनुष्य का जीवन साधारण चीज नहीं है, यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है विश्व की। संसार की समस्त योनियों में आत्मा भटकती-भटकती जब कुछ विशुद्ध होती है, कर्मों का भार कुछ कम होता है, तब यह मनुष्य की योनि में आती है "जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं।" कर्म के आवरण जब धीरे-धीरे हटते हैं, तो दिव्य प्रकाश फैलता है, जीवन की यात्रा कुछ आगे बढ़ती है। आत्मा पर लगा हुआ मैल ज्यों-ज्यों साफ होता है, त्योंत्यों वह धीरे-धीरे विशुद्ध होती जाती है। अर्थात् जब कुछ प्रकाश फैलता है, कुछ शुद्धि प्राप्त होती है, तब आत्मा मनुष्य की योनि में जन्म धारण करती है। मानव जीवन की महत्ता का यह आध्यात्मिक पक्ष है। सिर्फ जैन दर्शन ही नहीं, बल्कि भारतवर्ष का प्रत्येक दर्शन, प्रत्येक सम्प्रदाय और प्रत्येक परम्परा इस विचार पर एकमत है कि मानव-जीवन पवित्रता के आधार पर चलता है। मानव का ज्ञान पुरुषार्थ और पवित्रता की जितनी उच्च भूमि पर पहुँचा हुआ होता है, उसका विकास उतना ही उत्कृष्ट होता है। उस पवित्रता को यदि हम कायम रख सकें, तो हम मानव रह सकते हैं। यदि उसको उर्ध्वगामी बनाने का प्रयत्न करते हुए आगे बढ़ते हैं, तो मानव से महामानव और आत्मा से परमात्मा के पद तक पहुँच सकते हैं। मानव जीवन के एक ऐसे चौराहे पर खडा है. जहाँ पर चारों ओर से आने वाले रास्ते मिलते हैं और चारों ओर जाने वाले भी। वह यदि बढ़ना चाहे, तो उस मार्ग से उस ओर भी जा सकता है, जिधर अनन्त प्रकाश और अनन्त सुख का खजाना है, वह अपने जीवन को स्वच्छ एवं निर्मल बनाकर परम पवित्र बन सकता है, नर से नारायण बन सकता है, जन से जिन की भूमिका पर जा सकता है, अविद्या से मुक्त होकर बुद्ध का पद प्राप्त कर सकता है और आत्मा से परमात्मा की संज्ञा पा सकता है। __ यदि वह इस पवित्रता के मार्ग से हटकर संसार के भौतिक मार्ग पर बढ़ चले, तो वहाँ पर भी अपार वैभव एवं ऐश्वर्य के द्वार खोल सकता है। प्रकृति के कण-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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