Book Title: Chintan ki Manobhumi
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 532
________________ वसुधैव कुटुम्बकम् ५११ अपनी पत्नी के लिए आपकी मनोवृत्ति अलग ढंग की है और भाई की पत्नी के लिए अलग ढंग की। लड़के-लड़कियों के लिए भी एक भिन्न ही प्रकार की मनोवृत्ति काम कर रही है। इस प्रकार घर में एक परिवार होते हुए भी मन की दृष्टि में अलगअलग टुकड़े हैं, सब के लिए अलग-अलग खाने हैं और अलग-अलग दृष्टियाँ हैं। एक ही रक्त के परिवार में इन्सान जब इस प्रकार खण्ड-खण्ड होकर चलता है, क्षुद्र घेरे में बँट कर चलता है, तब उससे समाज और राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यापकता की क्या आशा की जा सकती है ? मैं विचार करता हूँ कि मनुष्य के मन में जो ईश्वर की खोज चल रही है, परमात्मा का अनुसन्धान हो रहा है, क्या वह सिर्फ एक धोखा है ? वंचनामात्र है ? क्या हजारों-लाखों मालाएँ जपने मात्र से ईश्वर के दर्शन हो जाएँगे? व्रत और उपवास आदि का नाटक रचने से क्या परमात्म-तत्व जाग्रत हो जाएगा? जब तक यह अलगअलग सोचने का दृष्टिकोण नहीं मिटता, मन के ये खण्ड-खण्ड सम्पूर्ण मन के रूप में परिवर्तित नहीं होते, अपने समान ही दूसरों को समझने की वृत्ति जाग्रत नहीं होती, अपने चैतन्य देवता के समान ही दूसरे चैतन्य देवता का महत्त्व नहीं समझा जाता, अपने समान ही उसका सम्मान नहीं किया जाता और अपने प्राप्त सुख को इधर-उधर बाँटने का भाव नहीं जगता, तब तक आत्मा परमात्मा नहीं बन सकती। जब आप सोचेंगे कि जो अभाव मझे सता रहे हैं, वे ही अभाव दसरों को भी पीडा देते हैं। जो सुख-सुविधा मुझे अपेक्षित हैं, वे ही दूसरों को भी अपेक्षित हैं। जो संवेदन, अनुभूति स्वयं के लिए की जाती है, उसी तीव्रता से जब वे दूसरों के लिए की जाएगी, तब कहीं आप के अन्तर में विश्वात्मभाव प्रकट हो सकेगा। विश्वात्मानुभूति : इधर-उधर के दो-चार प्राणियों को बचा लेना या दो-चार घण्टा या कुछ-दिन अहिंसा का व्रत पालन कर लेना, अहिंसा और करुणा की मुख्य भूमिका नहीं है। विश्व-समाज के प्रति अहिंसा की भावना जब तक नहीं जगे, व्यक्ति-व्यक्ति में समानता और सह-जीवन के संस्कार जब तक नहीं जन्में, तब तक अहिंसक-समाज रचना की बात केवल विचारों में ही रहेगी। समाज में अहिंसा और प्रेम के भाव जगाने के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा। अपने-पराए के ये क्षुद्र घेरे, स्वार्थ और इच्छाओं के ये कलुष-कठघरे तोड़ डालने होंगे। विश्व की प्रत्येक आत्मा के सुखदुःख के साथ ऐक्यानुभूति का आदर्श, जीवन में लाना होगा। भारतीय संस्कृति का यह स्वर सदा-सदा से गूंजता रहा है ___ "अयं निजः परोवेत्ति गणना लघु-चेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्॥" हृदय की गहराई से निकले हुए ये स्वर परमात्म चेतना के व्यापक स्वर हैं। जहाँ परमात्मतत्व छिपा बैठा है, आत्मा के उसी निर्मल उत्स से वाणी का यह निर्झर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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