Book Title: Chanakya Sutrani
Author(s): Ramavatar Vidyabhaskar
Publisher: Swadhyaya Mandal Pardi

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Page 5
________________ चाणक्यसूत्राणि पोसनेवाले समाजके हिसमें काम आये और उसीमें विलीन हो चुका हो । मानव अपने हितको समाजके हितसे अलग समझता हो और व्यक्तिगत सुखसुविधा में जीवन व्यय कर रहा हो इसमें उसका कदापि हित नहीं है । मूढ मानव अपनी भूलसे अपने हितको अपने समाज के हित से अलग बनाये रखनेके शतधा प्रयत्न करता तो है, परन्तु उसकी इस दुष्प्रवृत्तिसे उसका व्यक्तिगत हित भी नष्ट हो जाता उसका निश्चित मानसिक अकल्याण होता है और परिणामस्वरूप उसकी मूल्यकता मानवता भी लुप्त हो जाती है । अपने हितको समाजके हित से अलग रखना मूढ मनुष्यकी आपातमनोरम स्वहितविरोधी प्रवृत्ति है। मानवके व्यक्तित्वका समाजहितसे विच्छिन्न होजाना उसे अनिवार्य रूपसे समाजद्रोही, आत्मघाती असुर बनाकर छोड़ता है । जीवनकी धन्यता तो वे ही लोग पा सकते हैं जो समाजके हित में आत्मसमर्पण करके रहनेवाले ही जीवनकी धन्यता पा सकते हैं । व्यक्ति तथा समाजके दितका द्वैविध्य ( अलगाव ) ही मानव समाजका अमघात है । सुशिक्षा ही समाजको इस आत्मघाती रोगसे बचानेवाली एकमात्र रामबाण चिकित्सा है । देहका यह रोग सत्साहित्य के द्वारा सुशिक्षा से ही मिटाया जा सकता है । आर्य चाणक्यने राष्ट्रको सुशिक्षित करने ही के लिये अपना राजनैतिक साहित्य रचा है । सम्पूर्ण मानव समाजको सामाजिक सुशिक्षा देनेवाले भारतके राजनैतिक गुरु आर्य चाणक्यको उसकी मद्दती राजनैतिक सेवाओंके कारण राजनैतिक जगद्गुरुका उच्चासन स्वयमेव प्राप्त हो गया है । नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने । विक्रमार्जितलत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता ॥ सिंहका वनमें कोई राज्याभिषेक नहीं करता और कोई उसे राज्यदीक्षा . नहीं देता। अपने लिये अपने हीं भुजबल से सम्मानित पदका उपार्जन करनेवाला सिंह स्वयमेव ' मृगेन्द्र ' बन बैठता है । यह लोकोक्ति चाणक्य जैसे ही महापुरुषोंके लिये बनी है । 8

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