Book Title: Chaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 119
________________ तीर्थ-जिन विशेष [११५] श्री महावीर महियल करू, पण समता धारी, जोश न कबहु लेखवे, सहुने हितकारी...२... बह अतिशय लीलावती, करतां जन प्रसन्न, ब्रह्मचारी चूडामणी, जस नहीं विषयनो संग.. गुरु पासे भणिया नहीं, पण सघल जाणे, निंद विना परमेश्वरा, सुख सघलां माणे...४... रजत मणि गढ हेम वसे, नहीं परिग्रह पास, चामर छत्र विंझावता, निप्परिग्रहता भास...५... सेवा करावे सह भणी, नाम धरावे साधु, साध धरामण को नहीं, सूक्ष्म निराबाधु...६... राग नहीं पण रीझवे, सवि भविनां चित्त, द्वेष नहीं पण टाळीया, मोहादिके अमित्त...७... काम नहीं पण भोगवे, सवि वस्तुना धर्म, कर्म नहीं पण सवि तणां, कहे कर्मना मर्म...८... नर्मादिक लोला नहीं, शर्म तणो नहीं पार, तस गुण दाखवी नवि शकुं, जो होय जीभ अपार...६... जिनवर बिंबने पूजतां, होय शतगणुं पुन्य, सहसगणुं फल चंदने, जे लेपे ते धन्य...१०... लाख गणुं फल कुसुमनी, माला पहेरावे, अनंतगणुं फल तेहथो, गीत गान करावे...११... तीर्थंकर पदवी वरे, जिनपूजाथी जीव, प्रीति भक्तिपणे करी, स्थिरतापणे अतीव...१२... जिनपडिमा जिनसारिखी, सिद्धांते भाखी, निक्षेपा सहु सारीखा, थापना तिम दाखी...१३... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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