Book Title: Chaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 144
________________ [१४०] तीर्थ-जिन विशेष घणु विनवं हुं शं देवाधिदेवा, मने आप जो भवो भव स्वामी सेवा, ग्रही विनंती भावथी जेह भणशे, सकल सुखनो स्वामी सदा सुख करशे...१ पंच परमेष्ठि नु चैत्यवंदन बारगुण अरिहंत देव, प्रणमिजे भावे, सिद्ध आठ गुण समरतां, दुःख दोहग जावे...१... आचारज गुण छत्रीश, पचवीश उवझाय, सत्तावीश गुण साधुना, जपतां शिवसुख थाय...२... अष्टोत्तर शत गुण मलिओ, ओम समरो नवकार, धीरविमल पंडित तणो, नय प्रणमे नित्य सार...३ उपदेशक चैत्यवंदन क्रोधे कांइ न नीपजे, समकित ते लुटाय, समता रसथी झीलिओ तो, वैरि कोई न थाय...१... वहाला शुं वढीओ नहीं, छटको न दीजे गाळ, थोडे-थोडे छंडिओ, जिम छंडे सरोवर पाळ...२... अरि गो सरिखो गोठडी, धर्म सरीखो स्नेह, रत्न सरीखा बेसणां, चंपक वर्णी देह...३... चंपले प्रभुजी न पूजियां, न दीधं मुनिने दान, तय करी काया न शोषवो, किम पामशो निरवाण...४... आठम पाखी न ओळखी, अम करे शं थाय, उन्मत्त सरखी मांकडी, भोय खणंती जाय...४... आंगणे मोती वेरिया), वेले वीटाली वेल, हीरविजय गुरु हीरलो, मारू हैडु रंगनी रेल...६.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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