Book Title: Chaityavandan Sangraha Tirth Jin vishesh
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan
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[१२४]
चैत्यवंदन संग्रह
जिनराजने हुलरावता मुख कमल जेहना विकसे, जिन जन्म कल्याणक प्रसंगे, मेरू महिमा वन वसे... १ तव अचल जे हंमेश रहेतुं, तेह आसन खळभळे, जिन जन्म अवधि नाणे जाणो, सकल इंद्र तिहां मळे, पांडूक वनमें शीलातल पर देवदेवी मन हसे, अभिषेक करतां सुणे देखे, मेरू महिमा मन वसे... २ विविध तीर्थोने द्रहो ना, जलभर्या कोडि घडा, साठ लाख उपर तेहमां, अभिषेक करे विबुध वडा, अनुमोदता जे भावथी, ते शिवनगरमा जइ वसे, धर्मरत्न पसाय पामी, मेरू महिमा मन बसे... ३ दीक्षा कल्याणक नुं चैत्यवंदन
जिनराज दीक्षा काल थाता, अचल आसन खळभळे, लोकांतिक नव देव तिहां, प्रभुजी पास आवी मळे, जयकार करतां प्रभुजोनो, कर जोडी इम विनवे, जगत जीव हित कारणे, संयम गृहो इस्युं लवे... १ इन्द्र थकी आज्ञा लही, कुबेर जृभक ने कहे, जिन मात तातना नामना, सोनँया नव तिहां लहे, षट् अतिशयवंत दान देता, प्रभुजीनी सेवा करे, महादान जे अरिहंतनुं, पावे ते भवसागर तरे... २ निज हाथे सवि शणगार त्यागी, पंचमुष्टि लोच ने, छद्मस्थ केरा ज्ञाननी जे, पालता प्रभु टोच ने, मन पर्यव ज्ञान लही प्रभु विचरता शुभ मने,
दीक्षा कल्याणक धर्म गातां, रत्न त्रण आवे कने... ३
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