Book Title: Bhavbhavna Prakaranam
Author(s): Hemchandracharya, Vairagyarativijay
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra
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१८४
भवभावना
रागद्दोसाण धिरत्थु जाण विरसं फलं मुणतो वि। पावेसु रमइ लोओ, आउरवेज्जो व्व अहिएसु॥४३३॥ धम्मं अत्थं कामं, तिन्नि वि कुद्धो जणो परिच्चयइ। आयरइ ताइं जेहि, य दुहिओ इह परभवे होइ॥४३४॥ पावंति जए अजसं, उम्मायं अप्पणो गुणब्भंसं। उवहसणिज्जा य जणे, होति अहंकारिणो जीवा॥४३५॥ जह जह वंचइ लोयं, माइल्लो कूडबहुपवंचेहि। तह तह संचिणइ मलं, बंधइ भवसायरं घोरं॥४३६॥ लोभेणऽवहरियमणो, हारइ कज्जं समायरइ पावं। अइलोभेण विणस्सइ, मच्छो व्व जहा गलं गिलिङ।४३७॥ कोहम्मि सूरविप्पो, मयम्मि आहरणमुज्झियकुमारो। मायाइ वणियदहिया, लोभम्मि य लोभनंदो त्ति॥४३८॥ होंति पमत्तस्स विणासगाणि पंचिंदियाणि परिसस्स। उरगा इव उग्गविसा, गहिया मंतोसहीहिं विणा॥४३९॥ सोयपमुहाण ताण य दिटुंता पंचिमे जहासंखं। रायसयसेट्ठितणओ गंधमहप्पियमहिंदा य॥४४०॥ हिंसालियपमुहेहिं, य आसवदारेहिं कम्ममासवइ। नाव व्व जलहिमज्झे, जलनिवहं विविहछिड्डेहि।।४४१॥ ललियंग-धणायर-वज्जसार-वणिउत्त-सुंदरप्पमुहा। दिटुंता इत्थं पि हु, कमेण विबुहेहिं नायव्वा॥४४२॥ जो सम्मं भूयाइं, पेच्छइ भूएसु अप्पभूओ य। कम्ममलेण न लिप्पइ, सो संवरियासवदुवारो॥४४३॥ हिंसाइ इंदियाई, कसायजोगा य भुवणवेरीणि। कम्मासवदाराइं, रुंभसु जइ सिवसहं महसि॥४४४॥ निग्गहिएहि कसाएहिं आसवा मूलओ निरुब्भंति। अहियाहारे मुक्के, रोगा इव आउरजणस्स॥४४५॥ रुंभंति ते वि तवपसमझाणसन्नाणचरणकरणेहि। अइबलिणो वि कसाया, कसिणभुयंग व्व मंतेहिं।।४४६॥

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