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कर्म रहित होकर मुक्त होती है। (७) जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है तो भी अहिंसा, संगम तथा तपश्चरण द्वारा कर्मों को सर्वना अलग किया जा सकता है । (८) आत्मा स्वतन्त्र तत्व है तथा अरूपी व स्ववेहप्रमाण है । (९) जीवात्मा ज्ञान-दर्शन-मयं स्वतन्त्र पदार्थ है । (१०) विश्व सः ब्रम्यात्मक है: जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाम, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । इनमें जीव चैतन्ध है, बाकी पाँच द्रव्य जड़ हैं, पुद्गल रूपी है, बाकी पाँच द्रव्य अरूपी हैं । (११) विश्व के सब पदार्थ उत्पादॆ-व्यंय-ध्रौव्यात्मकं नित्यानित्य हैं । (१२) जीव कर्म करने और भोगने में स्वतन्त्र है तथा अपने पुरुषार्थ बल से कर्मों का सर्वथा क्षय करके सिद्ध और मुक्त होकर शाश्वत आनन्द का उपभोक्ता बनता है । (१३) अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि की अभिवृद्धि एवं अभिव्यक्ति से आत्मा अपनी स्वाभाविकता के समीप पहुँचते हुए स्वयं धर्ममय बन जाता है । (१४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीनों की परिपूर्णता से जीवात्मा मुक्ति प्राप्त करती है। (१५) मुक्ताबस्था में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है । (१६) अपने भाग्य का निर्माता जीव स्वयं है । ( १७ ) जीवात्मा मुक्त होने के बाद पुनः अवतार नहीं लेती । (१८) तत्त्व नव है-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष । ( १९ ) मानव शरीर से जीवात्मा सब कर्मों को क्षय करके ईश्वर बनती है अर्थात् मुक्ति प्राप्त करना ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । ( २० ) जीवात्मा राग-द्वेष (मोहनीय कर्म ) के क्षय से वीतरागता को प्राप्त करती है । यह ज्ञानावरणीय आदि बार
ती कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त कर सर्वज्ञ सर्वदर्शी बनता है । (२१) ईश्वर जगत् का कर्त्ता नहीं है; जगत् तो अनादि काल से प्रवाह रूप से अनादि और अनन्त है । इस प्रकार लोक, जीव, अजीव, ईश्वर आदि के स्वरूप का विस्तार पूर्वक विवेचन कर अपनी सर्वज्ञता का परिचय दिया है ।
सारांश यह है कि प्रभु महावीर के परम पवित्र प्रवचन ( उपदेश )