Book Title: Bhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 195
________________ ( १७३ ) थी और न हो दान में दे सकती थी। क्योंकि यह बात उसके मान्य आचार और सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध थी। (२०) भगवान महावीर के रोग का विचार करते हुए तथा उनके आचार-विचारों को लक्ष्य में रखते हुए, एवं निग्रंथ श्रमण सिंह मुनि की चर्या का अवलोकन करते हुए धाविका रेवती के पवित्र आचार को समझते हुए यह बात फलित होती है कि यह औषध प्राण्यंग मांस से निष्पन्न नहीं थी। मुर्गे का मांस रक्त-पित्त जैसे दाहक रोग में हानिकर है ऐसी वैद्यक शास्त्र की मान्यता होने से यह बात सर्वथा सत्य है कि जो औषध श्रमण भगवान महावीर ने अपने रोग शमनार्थ ग्रहण की थी वह वनस्पतिनिष्पन्न, एषणीय, प्रासुक एवं निग्रंथआचार तथा रोगशमनार्थ सर्वथा अनुकूल थी। (२१) कोई कोई आजकल यह कहते भी पाये जाते हैं कि वनस्पतियां पक्वान्न तथा खाद्य पदार्थों के लिये मांस-मत्स्यादि जो शब्द वनस्पतियों और प्राणियों अथवा वनस्पत्यंगों और प्राण्यंगों दोनों के लिये प्रयुक्त होते हैं ऐसे शब्दों का प्रयोग प्राचीन जैन आगमों में वनस्पति और पक्वान्नों के लिये क्यों किया गया? जब कि शब्दकोश में ऐसे शब्द भी मौजूद हैं जिनका प्रयोग मात्र वनस्पतियों के लिये ही होता है। ऐसा होने से तो मांस मत्स्यादि अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का सन्देह हो जाने के कारण अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अतः आगम रचने वालों को चाहिये था कि वे ऐसे द्वयार्थक शब्दों का प्रयोग सूत्रपाठों में न करते, और यदि हो भी गया है तो ऐसे सूत्रपाठों को प्राचीन जैनागमों में से निकाल देना चाहिये। आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले निग्गंठ नायपुत्त (श्रमण भगवान महावीर स्वामी) के उपदेशों का संग्रह उनके गणधरों ने किया उस समय इन विबादास्पद शब्दों का अर्थ वनस्पतिपरक तथा पक्वान्न आदि उत्तम खाद्य पदार्थो के लिये प्रयोग किया जाता था, इस बात का उल्लेख हम पहले कर आये है। भाषाशास्त्रियों से यह बात भूली हुई नहीं है कि देश तथा कालादि के भेद से शब्दों के अर्थ भिन्न हो जाते हैं। एकार्थक

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