Book Title: Bhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 186
________________ होता तो अन्य धर्मावलम्बियों के साहित्य में जैनधर्म के प्रतिस्पर्सी रूप में नों पर मांसाहार करने का आक्षेप अवश्य पाया जाता। परन्तु यह बड़े पौरव का विषय है कि जनेतर साहित्य मे जनों पर इस आक्षेप का सर्वथा अभाव है। मेरे एक मित्र जो एक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान हैं लेखक, वक्ता तथा धर्मोपदेशक हैं उन्होंने इस विषय के लिये यह तर्क किया-“संभव हो सकता है कि जैन साहित्य जैनेतर विद्वानों के हाथ में न जा पाया हो, इसलिए हो सकता है कि वे ऐसा आक्षेप जैनों पर न कर पाये हों" उनकी यह दलील कोई युक्तिमगत प्रतीत नही होती, क्योंकि यह कभी संभव नहीं हो सकता कि जैन साहित्य जैनेतर विद्वानों के हाथ में न गया हो। यदि थोड़ी देर के लिये ऐसा मान भी लिया जाय तो भी वंदिक. पौराणिक जैन तथा बौद्ध साहित्य का अवलोकन करने से पता चलता है कि अनेक निर्ग्रन्थ श्रमण जैनधर्म का त्याग कर अन्य धर्म सम्प्रदायों में जा मिले। अनेकों ने निम्रन्थ श्रमण की चर्या का त्याग कर अपने नवीन सम्प्रदायों की स्थापना भी की। जब वे जैन धर्मोपासक थे तब उन्होंने जनागमों का अभ्यास तो अवश्य ही किया होगा । इसका यह मतलब हुआ कि वे जैनागमों तथा निन्थाचारों विचारों से पूर्णरूपेण परिचित थे, ऐसा स्पष्ट सिद्ध होता है। यदि जैनागमों तथा जैन आचार-विचारों में किचित मात्र भी मास मछली आदि अभक्ष्यभक्षण का वर्णन अथवा प्रचलन होता तो वे जैनधर्म के प्रतिपक्षी रूप मे जैनों पर अवश्य आक्षेप करते पाये जाते। (७) निग्रंथ (जैन) श्रमणों का आचार जनता के समक्ष था, क्योंकि जैन मुनि आहार आदि सदा गहस्थों के वहाँ से ही ले लेते थे एवं लेते हैं। यदि वे कदाचित् अनिवार्य अवस्था में भी प्राण्यंग मांस-मत्स्यादि का भक्षण करते तो जैनेतर साहित्य मे जनों पर मांसाहार करने का आक्षेप अवश्य पाया जाता। ऐसा न होना ही यह सिद्ध करता है कि निग्रंथ आचार-विचार से प्राण्यंग मासादि भक्षण को किंचिन्मात्र भी अवकाश नही। (८)गौतम बुद्ध, जमाली, गोशालक ये तीनों भगवान् महावीर स्वामी

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