Book Title: Bhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 184
________________ ( १५२ ) देव की आज्ञा के विरोध में अपनी आशा देने का अधिकार आचार्य को नहीं है। क्योंकि तीर्थंकर और आचार्य की आशा में बलाबल की दृष्टि से तीर्थंकर देव की जाज्ञा ही बलवती मानी जाती है, आचार्य की नहीं । arra तीर्थंकर देव की आज्ञा की अवहेलना करने वाला व्यक्ति अविनय एवं गर्व के दोष से दूषित माना गया है। जिस प्रकार श्रुति और स्मृति में विरोध होने पर श्रुति ही बलवान मानी जाती है, उसी प्रकार तीर्थंकर की माशा आचार्य की आज्ञा से बलवती है । यही कारण है कि प्रथमांग आचारांग के टीकाकार श्री शीलंकाचार्य तथा दशवेकालिक आगम के टीकाकार श्री हरिभद्रसूरि ने सूत्र पाठों में आने वाले इन विवादास्पद शब्दों के अर्थ जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्तों के अनुकूल करने के लिये अपनी बुद्धि का ठीक-ठीक उपयोग करने में कोई कसर नहीं उठा रखी । पृथ्वी, पानी आदि छ: काय जीवों की दया पालने वाले कीड़ियों की करुगा के लिये कड़वी तुम्बी का आहार करने वाले तथा अपने मान्य तीर्थकर देवों के सिद्धान्त को पालन करने के उपलक्ष में पाँच-पाँच सौ एक हो समय मे धानी में पीले जाने पर भी हंसते-हंसते अपने प्राणों को आहुति देने वाले जैन निग्रंथ अनिवार्य संयोगों में भी मांस मछली आदि का भक्षण क े ऐसी बात उन के गले भी न उतरी । तथा जिस प्रकार इन सूत्रों के विवादास्पद भागों को आजकल के कुछ विद्वान क्षेपक अथवा विचारणीय मानते हैं, उन टीकाकारों ने इन आधुनिक विद्वानों के समान घुष्टता भी नहीं की। उन्होंने अपनी बुद्धि को कसकर मूल सिद्धान्त के हार्द के जितना समीप से समीप जाया जा सका उतना जाने का प्रयत्न किया । किन्तु उन्होंने किसी भी स्थान पर मांस-मछली आदि अभक्ष्य पदार्थों को खाने का अर्थ तो किया ही नहीं । पंचांग भगवती सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने तो इसमें आये हुए विवादास्पद सूत्र पाठ का स्पष्टार्थ वनस्पति-परक ही स्वीकार किया है। अतः प्राचीन टीकाकारों, चूर्णिकारों के मतानुसार भी निर्भय श्रमण मांस भक्षण अथवा मांस- भिक्षा करते थे यह कदापि सिद्ध नहीं हो सकता ।

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