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[५] श्रमण भगवान् महावीर का तत्वज्ञान
किसी भी महापुरुष के जीवन का वास्तविक रहस्य जानने के लिये दो बातों की आवश्यकता होती हैं :-(१) उस महापुरुष के जीवन की बाह्य घटनाएँ और (२) उनके द्वारा प्रचारित उपदेश । बाह्य घटनाओं से आन्तरिक जीवन का यथावत् परिज्ञान नहीं हो सकता। आन्तरिक जीवन को समझने के लिये उनके विचार ही अभ्रान्त कसौटी का काम दे सकते हैं। उपदेश, उपदेष्टा के मानस का मार, उनकी आभ्यन्तरिक भावनाओं का प्रत्यक्ष चित्रण है। तात्पर्य यह है कि उपदेष्टा की जैसी मनोवृत्ति होगी वसा ही उसका उपदेश होगा। यह कसौटी प्रत्येक मनुष्य की महत्ता का माप करने के लिये उपयोगी हो सकती है। क्योंकि विचारों का मनुष्य के आचार पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसलिये एक को समझे बिना दूसरे को नहीं समझा जा सकता। श्रमण भगवान् महावीर के उपदेशों को हम दो विभागो में विभक्त कर सकते हैं। (१) विचार यानी तत्त्वज्ञान (२) आचार यानी आचरण अथवा चरित्र । यहाँ पर उनके विचार अथवा तत्त्वज्ञान का संक्षिप्त परिचय देगे । केवलज्ञान पाने के बाद भगवान् ने कहा-(१) यह लोक है, इस विश्व में जीव और जड़ दो पदार्थ हैं, इनके अतिरिक्त और तीसरी मौलिक वस्तु है ही नहीं। इसलिये यह कह सकते हैं कि जीव और जड़ के समूह को ही लोक कहते हैं। (२) प्रत्येक पदार्थ मूल द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य-अन्तवान् है। (३) लोकालोक अनन्त है । (४) जीव और शरीर भिन्न हैं। जीव शरीर नहीं, शरीर जीव नहीं। (५) जीवात्मा अनादि काल से कर्म से बद्ध है इसलिये यह पुनः पुनः जन्म धारण करती है । (६) जीवात्मा