Book Title: Bhagwan Mahavir tatha Mansahar Parihar
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 101
________________ तस्योपरोपात स्वाम्यूचे, रेवत्वा मेकिभाषया । पक्वः कूष्मांडकटाहो, यो मह्यं तं तु मा व्हीः ॥५५०॥ बोजपूरकटाहोऽस्ति यः पकवो गृहहेतवे । तं गृहीत्वा समागच्छ, करिष्ये तेन वो पुतिम् ॥५५१॥ सिंहोऽगावय रेवतीगृहमपादत्त प्रदत्तं तया, कल्प्यं भेवजमाशु तत्र ववृषे स्वर्ग च हष्टः सुरः । सिंहानीतमुपास्य भेषजवरं तद् वर्षमानः प्रभुः, सबः संघचकोरपार्वणशशी प्रापद् वपुः पाढवम् ॥५५२॥ भावार्थ- [भक्तिमान सिंह अनगार ने कहा] हे स्वामिन् ! हमारे जैसों के दुःख की शांति के लिये तो आप भेषज ग्रहण करो, क्योकि मेरे जंसो से (भक्तों-सेवकों से) स्वामी को क्षणवार भी पीड़ित नही देखा जाता । उसके आग्रह से स्वामी ने (भगवान् महावीर ने) कहा कि--सेठ की भार्या रेवती ने मेरे लिये ही कुष्माण्ड-कटाह (पेठे का पाक) बनाया है, उसे मत लाना । किन्तु उसने अपने घर के लिये जो बीजपूर कटाह (बीजोरा पाक) बनाया है, उसे ले आओ। उसके द्वारा तुम्हे धृतिधीरज पैदा होगी। तत्पश्चात् सिंह (मुनि) रेवती श्राविका के घर गया तथा उसके द्वारा दिये हुए कल्पे ऐसे भेषज (औषध) को भगवान् ने स्वीकार किया। वहां हर्षित हुए देवों ने शीघ्र ही स्वर्ण वृष्टि की। संघ रूपी चकोर को उल्लसित करने के लिये चन्द्रमा के समान वर्धमान प्रभु (भगवान् महावीर) ने सिंह के द्वारा लाये हुए उस भेषज का सेवन किया। तत्पश्चात् शीघ्र ही शरीर की स्वस्थता प्राप्त की। इन उपर्युक्त उद्धरणों से यह बात.स्पष्ट है कि श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने वनस्पति से तैयार की गयी औषध को ही अपने रोग की शांति के लिये सेवन किया था। इस विवेचन में दिये गये क, ख, ग, घ' उद्धरणों के लेखक विक्रम की बारहवीं शताब्दी के समकालीन हैं तथा "" उद्धरण के लेखक तेरहवी शताब्दी के हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उस

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