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जो देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड सूरत से प्रकाशित हो चुका है । उसके प्रस्ताव ८ पत्र २८२, २८३ में वर्तमान चर्चास्पद विषय पर प्रकाश डालता हुआ वर्णन है । वहाँ सिंह अणगार की प्रार्थना से कल्प्य औषधि स्वीकार करने के लिए भगवा महावीर सम्मत होने पर भी " अपने निमित्त से तैयार की हुई औषध नही कल्पती," ऐसा साधुसामाचारीमर्यादा को अपने आचरण से सूचित करते हैं ।
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"जइ एवं ता इहेब नयरे रेवईए गाहावइणीए समीवं वच्चाहि । ताए य मम निमित्त जं पुत्र ओसहं उक्क्त्वडियं तं परिहरिकण इपरं अप्पणो निमित्तं निष्फाइयं आगेहि ति ।"
भावार्थ--- [ हे मिह् ! ] यदि ऐसा ही है तो इसी नगर में (मेढिक ग्राम में ) रेवती नाम की गृहपति की पत्नी के समीप जा, उसने मेरे निमित्त जो पहले as तैयार की हुई है उसे छोड़ कर दूमरी (औषध) जो उस ने अपने लिये तैयार की हुई है, वह लाना । भगवान् महावीर के लिये अवदान देते मे इस भक्त श्रद्धालु की देवगति हुई, इत्यादि वहां विस्तृत वर्णन है ।
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स्वतंत्र संस्कृत-प्राकृत शब्दानुशासन, कोश, काव्य, साहित्य रचने वाले सुप्रसिद्ध कलिकालसर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र ने विक्रम की तेरहवी शताब्दी में "त्रिषष्टिशला कापुरुषचरित्र" महाकाव्य रचा है, जिसके दसवे पर्व मे लगभग छ हजार श्लोकप्रमाण भगवान् महावीर का चरित्र है । यह ग्रंथ भावनगर से जैनधर्म प्रसारक सभा ने विक्रम संवत् १९६५ मे प्रकाशित किया है। उसके आठवे सर्ग के श्लोक ५४९ से ५५२ मे चालू चर्चास्पद विषय पर स्पष्ट प्रकाश डाला है।
मादृशां दुःखशान्त्यं तत् स्वामिन्यावत्स्व भेषजम् । स्वामिनं पीडितं द्रष्टुं नहि क्षणमपि क्षमाः ।। ५४९ ॥
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