Book Title: Bhagvati Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami, 
Publisher: Hiralal Hansraj

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३३९॥ शतके उदेशः२ ॥३३९॥ | अवबांग, अवब, हहकांग, हहक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थन् परांग, अर्थन पुर, अयुतांग. अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुत्तांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम अने सागरोपम ए बधां संबंधे पण समज. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे जंबूद्वीपमा दक्षिणार्धमा प्रथम अवसर्पिणी होय छे त्यारे उत्तरार्धमां पण प्रथम अवसर्पिणी होय छे अने ज्यारे उत्तरार्धमां पण तेम होय छे त्यारे जंबूद्वीपमा मंदर पर्वतनी पूर्व पश्चिमे अवसर्पिणी नथी, तेम उत्सर्पिणी नथी. पण हे दीर्घजीविन् ! श्रमण ! त्यां अवस्थित काल कह्यो छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, एज रीते छे-पूर्वनी पेठे वधुं यावत्-हे दीर्घजीविश्रमण ! इत्यादि. जेम उवसर्पिणी संबंधे का तेम उत्सपिणी विषे पण समजवू. ॥ १७७ ॥ दा लवणेणं भंते ! समुद्दे मृरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जच्चेव जंबूद्दीवस्म वत्तव्वया भणिया सच्चेव मव्वा अप रिसेसिया लवणममुदस्सवि भाणियव्या, नवरं अभिलायो इमो णेयम्बो-जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे हा दिवसे भवति तं चेव जाव तदा णं लवणे समुद्द पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं राई भवति, एएणं अभिलावेणं नेयव्वं । जदा णं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ तदा णं उत्तरडढेवि पढमा ओमप्पिणी |पडिवजह, जदा णं उत्तरड्ढे पढमा ओसप्पिणी पडिवजइ तदा णं लवणसमुद्दे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं नेवत्थि ओसप्पिणी २ समणाउसो! ?, हंता गोयना ! जाच समणाउसो' ॥धायईसंडे णं भंते ! दीवे मरिया उदीचिपादीणमुग्गच्छ जहेव जंबुद्दीवस्स बत्तवया भणिया सच्चेव धायइसंडस्सवि भाणियव्वा, नवरं इमेणं अभि-15 लावणं सब्वे आलावगा भाणियब्वा । जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे दाहिणढे दिवसे भवति तदा उत्त .. .. For Private and Personal Use Only

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