Book Title: Balidan Patra No 003 1915 Author(s): Parmanand Bharat Bhikshu Publisher: Dharshi Gulabchand Sanghani View full book textPage 8
________________ दीन दुःखी जीवों ) को दिया जाय, हरिभक्तों की सभा में प्रतिज्ञापूर्वक देश ( जिस स्थान में आप खड़े वा भी देना चाहिये ।। बैठे हैं वा चलते हैं अथवा असमर्थ एवं छःप्रकार के दान की भगवती होकर लम्बे पड़े हैं ) काल (जिस श्रुति ने आज्ञा दी है, सो दान के काल में आप के हृदय में दान देने पात्र ये हैं:का संकल्प स्फुरण हुअा ) पात्र ( अ . दान के पात्र । पने समीप हो वा ग्राम में वा बहुत (१) सबसे प्रथम दाम संसारमात्र दूर हो परन्तु सुपात्र हो ) उसको वहां की रक्षा करनेवाला, आठों वसुओं के श्रद्धापूर्वक पहुंचा देना सात्विकी तेज करके संयुक्त ईश्वर का विशेष अंशदान है । अथात् इवर का प्रसन्नता रूप राजा है उसकी आज्ञा पालन करना, को प्राप्त होता है। तथा आपत्काल में उसको सर्वस्व दान ___ दान देने की श्रुति में भी आज्ञा देना चाहिये, क्योंकि संसार की मर्यादा है, यथा-श्रद्धया देयम्, अश्रद्धया देयम्, को स्थापित करने वाला अर्थात मनुष्य श्रिया देयम्, हिया देयम्, भिया देयम्, से लेकर पशु पक्षी वा वनस्पति पर्यन्त संविदा देयम् । तैत्तिरीयोपनिषद् ॥ सब की पुकार को श्रवण करने वाला भावार्थः-(१) दान श्रद्धापूर्वक राजा ही है, यदि आपत्काल में उस देना चाहिये। राजा को दान, मान आदि से सहायता (२) दान अश्रद्धा से भी देना नहीं दी जावे तो सत्पुरुषों की मर्यादा चाहिये । | को नष्ट भ्रष्ट करने वाले दुष्ट जनों से (३) दान शोभा के लिये भी कौन बचा सक्ता है ? दुष्टों को दान करने में राजा ही समर्थ है, जिस राजा को देना चाहिये। जीवमात्र पर समदृष्टि से उचित ( ४ ) दान लज्जापूर्वक भी देना शासन करने के लिये ईश्वर ने ही चाहिये। स्थापित किया है, छोटे से छोटे राजा (५) दान रोगभय, राजभय, को लेकर चक्रवर्ती पर्यन्त जो राजा जातिभय, मृत्युभय आदि सभा दना पक्षपात रहित होकर अपने शरीर व चाहिये । अपने पुत्र के समान प्राणीमात्र की (६) सज्जन और विद्वानों तथा पुकार को श्रवण करता है उस राजPage Navigation
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