Book Title: Balidan Patra No 003 1915
Author(s): Parmanand Bharat Bhikshu
Publisher: Dharshi Gulabchand Sanghani

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Page 12
________________ (१०) जाकर अछूत जातियों से हुआकर अप- दरिद्रियों को दान देखो सो ही दान वित्रस्थान में रखकर उस अन को फलदायक होता है। जो वेचने वाले हैं उनको धन मत दानं दरिद्रदीयते सफलं पाण्डुनन्दन । दो, क्योंकि सब से अति अपवित्र जो (२६) सुपात्रदानाच्च भवेद्धमांस मदिरा है सो भी ऊंचे स्थान नान्यो धन प्रभावेण करोति पुण्यम् । पर रखकर बेचते हैं तब अन जैसे पुण्य प्रभावाच्च दिवं प्रयाति पुन पदार्थ और ठाकुरजी के भोग का मामला परेवगी। निरादर करने वालों को जो दान देते हैं मानो नरक का मार्ग अपने वास्ते भावार्थ:--सुपात्रों को दान देने स्थापित करते हैं, उन भोग के अत्र से दाता धनवान होता है और धन को खाना भी महा पाप है क्योंकि शुभ कमा में खर्च करने से स्वर्ग मिलता कैसे २ कुकर्मी वहां जाकर ठाकुरजी है इस प्रकार वार २ धनवान् होकर को चढ़ाते होंगे-मच्छियों के पकड़ने रोग शोकादि से रहित होकर उस वाले वा पक्षियों को पकड़नेवाले वा धन को भोगता है । पशु पक्षियों को मारनेवाले वा मच्छियों वशिष्ठस्मृतिके समुद्र का ठेका लेनेवाले चोर, (२७ ) योगस्तयो दमादानं सत्यं डाकू, खूनी, व्यभिचारी पुरुष तथा शौचं दया श्रुतम । विद्याविज्ञानमाव्यभिचारिणी स्त्रियों वा वेश्या आदि- स्तिक्यतनामण लक्षणम् ॥ कों का भी धन ठाकुरजी को चढ़ाया भावार्थ:-(१) योग के अष्टाङ्ग जाता है, इसलिये सद्गृहस्थों को कोसिद्धकर समाधि में स्थित होनेवाला उचित है कि अपने घर में ठाकुरजी (२) कृच्छुपान्दारणादि व्रत को धारण की मूर्ति को वा अभ्यागतरूपी विष्णु करने वाला (३) मन सहित इन्द्रियों को वा दीन दुखी अनाथों को देकर को जीतने वाला (४) परोपकारार्थ ( भोग लगाकर ) सदैव भोजन करना चाहिए । जो इस भोग के दिये विना । दान देने वाला (५) हित और मितखाता है वो पापात्मा मलमूत्र को संयुक्त सत्य का बोलने वाला (६) खाता है ऐसा श्रीकृष्णजी कहते हैं। बाहर मांस मदिरादि व्यभिचार का ( २५) वीर ब्रह्मचारी क्षत्रिकल त्याग और अन्दर राग द्वेषादिकों का भूषण भिष्मपितामह कहते हैं-हे त्यागने वाला (७) संपूर्ण जीवमात्र पाण्डकुलभूषण धर्मपुत्र युधिष्ठर ! पर दया करने वाला (८) सपूर्ण

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