Book Title: Balidan Patra No 003 1915
Author(s): Parmanand Bharat Bhikshu
Publisher: Dharshi Gulabchand Sanghani

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Page 15
________________ (१३) है वो एक विद्वान् के भोजन कराने जिनके निमित्त हम ईश्वर को साक्षी से मिलता है, मनु०अ०३। श्लोकह॥ रखके करते हैं वह उन्हीं को मिलेगा का श्लोकः-विद्यातपः समृद्धेषु हुतं विप्रमु. हमको मिलेगा जो शुभ अशुभ कर्म खाग्निषु । निस्तारयति दुर्गाच महतश्चैव किया जाता है वही कर्म निष्फल नहीं किल्विषात् ३।१८। अर्थ:-विद्या और होता, हां, हमारी यह मूर्खता है कि तप से संयुक्त ब्राह्मणों के मुखरूप हम पात्र कुपात्र को न विचारकर जो । अग्नि में श्राद्धरूपी अन्न का हवन कार्य करते हैं उसका फल उपहासकरने से महान् पाप और आपत्तियों रूप निंदा के पात्र होते हैं। से बचता है १४४। श्लोक म० अ०३।। पुनः देखिये व्यावर में श्री - सर्व वेद और वेदों के अर्थ को रघुनाथजी के मंदिर में देवी-भागवत जानने वाला तथा उनही का उपदेश तृतीय स्कंध ३ अध्याय १० पृष्ठ ६६ करनेवाला तथा ब्रह्मचर्य को धारने में लिखा है कि उस राजा को धिक्कार वाला और यदि ऐसा सपात्र न मिले है जिसके राज्य में मूर्ख ब्राह्मणों की तो गुणवान् मित्र को श्राद्ध में भोजन पूना, दान, मान से होती है जहां मूर्ख कराना चाहिये। और पंडित का भेद न हो वहां जानना कितनेक सनातनधर्म को न चाहिये कि राजा भी मूर्ख है क्योंकि मानने वाले नवयुवक कहते हैं कि दुजेनों की विभूति दुष्टों के अर्थ होती श्राद्ध न करना चाहिये सो श्राद्धादि अ है जैसे कटु नीम के फल मलमूत्र-भक्षक घश्यमेव करना चाहिये क्योंकि जिस कौओं के अर्थ होते हैं जो कोई शुभ के करने से माता पिता आदिकों के कम्मों से फल चाहता हो वह मूर्ख उपकार की स्मृति होती है और दूसरा ब्राह्मण को आसन पर न बिठावे और यह है कि उनके निमित्त से हमारे राजा उसको शूद्रों के समान हल चौका घर से कुछ पुण्याथे निकलता है तीसरा | वरतनादि के कर्मों में लगावे । जब एक पैसे का पोष्टकार्ड वा मनी- | महाभारत शांतिपर्व में क्षत्रीकुलआर्डर अनेकों स्थानों में फिरकर भी भूषण वीर-ब्रह्मचारी भीष्म-पितामह उसी को मिलता है जिसके कि नाम बाणों की शय्या पर विराजमान हो पर भेजते हैं, यदि वह न मिले तो कर धर्मपुत्र युधिष्ठिर के प्रति कहते चापिस हमें ही मिलता है इसी प्रकार हैं कि हे धर्मपुत्र युधिष्ठिर! मूर्ख ब्राह्मणों

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