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सनातन धर्मकी ओट में बैठकर अत्यन्त घोर अत्याचार करनेवाले पुरुषों की क्रूरताको श्रीनपाल महाराजने श्रवणकर अपने हृदयरूपी रजिस्टरमें धारण किया है और एक भारत भिक्षुकने इसहिंसारूपी फोड़े की निवत्ति का उपायरूप यह मल्लम पट्टीरूपी लेख द्वारा प्रकाशित किया है सो मनुष्यमात्र को हृदय में धारण करना चाहिए। क्षत्रियकुलभूषण वीर ब्रह्मचारी भीष्म पितामहजी कहते हैं:सप्तद्वीपां सरत्नां च दद्यान्मेरु सकाञ्चनम् । यस्य जीवदया नास्ति सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥ भावार्थ:-हे धर्मपुत्र युधिष्ठिर ! इस संसारमें सातों द्वीप सोने चांदी हीरे पन्ने आदि की खानि सहित दान करदो परन्तु जिस दुष्ट के चित्त में दया-देवी का निवास नहीं है उसका सब जन्म कम धमे निष्फल है।
देखिये भारतवर्ष के इतिहासों के द्वितीय सूर्य पण्डित गौरीशंकर हीराचंदजी अोझा क्या कहते हैं:
श्रीयुत महाराज स्वामी परमानंदजी ! मैंने आपका बलिदानपत्र नं०३ द्वितीयावृत्ति का पढ़ा तो कई नई बातें मालूम हुई. यदि जीवों को दुःख दे दे। कर मारने की प्रथा इस देश से उठ जावे तो बहुत ही अच्छा है. आपने अनेक स्थलों में जीवों की दुर्दशा करके उनको मारने के जो उदाहरण दिये हैं वे रोमांच खड़े करदेते हैं, यदि कोई मांस गने के लिये जीवहिंसा करता है तो एक दम प्राण लेलेता है परंतु धर्मका नाम लेकर दुःख दे देकर कई घंटों के बाद प्राणी को मारना यह मनुष्यधर्म नहीं है । इस पुस्तक को मनुष्यमात्रको देखना चाहिये।
भवदीय
गौरीशंकर ओझा, प्राणीमात्र का शुभचिंतक. श्रीमत्परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री
स्वामी परमानन्दजी भारतभिक्षु.संत
सरोवर आत्मतीर्थ, बाबूपहाड (राजपुताना)